नई दिल्ली। बीजेपी के लाल पुरुष लालकृष्ण आडवाणी को इनदिनों एक
शख्स की बहुत याद आ रही होगी। उस शख्स का नाम है बलराज मधोक। आज से ठीक 40
साल पहले के वसंत और उसके बाद गर्मी के दिनों में आडवाणी ने मधोक के साथ जो
कुछ किया था, वक्त ने उनके साथ ही इस साल की गर्मियों में वैसा ही किया तो
वे और उनके समर्थक परेशान हो गए हैं। अपना राजनीतिक भविष्य बलराज मधोक
जैसा होने का आभास शायद आडवाणी को कुछ समय पहले ही हो गया था। शायद यही वजह
है कि पिछले साल जून में बलराज मधोक से मिलकर संघ परिवार खासकर बीजेपी में
मची हलचल को लेकर चर्चा की थी। उस मुलाकात के दौरान दोनों ने जनसंघ के
पुराने दिनों को भी याद किया था।
कहते हैं इतिहास खुद को दोहराता है और कही गई बातें वापस आकर उसी व्यक्ति को परेशान करती हैं, जिसने कभी वही बातें कही थीं। इनदिनों लालकृष्ण आडवाणी के साथ ऐसा ही होता दिख रहा है। आडवाणी को अपने राजनैतिक जीवन के इस मोड़ पर कई सवालों के जवाब देने हैं। क्या खुद को बेहद अनुशासित मानने वाले आडवाणी ने अपने इस्तीफे की चिट्ठी सार्वजनिक कर पार्टी का अनुशासन नहीं तोड़ा है? क्या अनुशासन के नाम पर आडवाणी ने बलराज मधोक जैसे जनसंघी को पार्टी से बाहर का रास्ता नहीं दिखाया था? क्या नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार अभियान समिति का अगुवा बनने से आडवाणी को इतनी चोट पहुंची कि उन्हें अब बीजेपी में ज्यादातर लोग अपना ही हित साधते दिख रहे हैं? क्या आडवाणी ने खुद कई वरिष्ठों को ‘बौना’ बनाकर पार्टी और सरकार की मलाई नहीं खाई है? क्या आज आडवाणी को अपनी ही दवा कड़वी लग रही है?
अनुशासन के नाम पर बलराज मधोक को किया था बाहर
कभी दक्षिणपंथी राजनीति के धुरंधर रहे बलराज मधोक को लालकृष्ण आडवाणी ने अनुशासन तोड़ने और पार्टी के हितों के विपरीत काम करने जैसे आरोप लगाकर जनसंघ से बाहर कर दिया था। यह तब था जब मधोक उन लोगों में शुमार हैं जिन्होंने आडवाणी को जनसंघ की राजनीति में स्थापित करवाया था। इतिहासकार क्रिस्टोफर जेफरलॉट ने अपनी किताब ‘द हिंदू नेशनलिस्ट मूवमेंट एंड इंडियन पॉलिटिक्स: 1925 टू द 1990…’ में आडवाणी द्वारा बलराज मधोक को निकाले जाने के मुद्दे पर लिखा है, ‘फरवरी, 1973 में कानपुर में जनसंघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सामने एक नोट पेश किया। उस नोट में मधोक ने आर्थिक नीति, बैंकों के राष्ट्रीयकरण पर जनसंघ की विचारधारा के उलट बातें कही थीं। इसके अलावा मधोक ने कहा था कि जनसंघ पर आरएसएस का असर बढ़ता जा रहा है। मधोक ने संगठन मंत्रियों को हटाकर जनसंघ की कार्यप्रणाली को ज्यादा लोकतांत्रिक बनाने की मांग भी उठाई थी।
आडवाणी उस समय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। वे मधोक की इन बातों से इतने नाराज हो गए कि आडवाणी ने मधोक को पार्टी का अनुशासन तोड़ने और पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल होने की वजह से उन्हें तीन साल के लिए पार्टी से बाहर कर दिया था। इस घटना से बलराज मधोक इतने आहत हुए थे कि फिर कभी नहीं लौटे। दिलचस्प बात यह है कि मधोक को बाहर का रास्ता दिखाते हुए आडवाणी ने पार्टी के अलिखित नियम की चर्चा की थी, जिसके मुताबिक जिन मुद्दों पर बहुमत के आधार पर फैसला ले लिया गया हो उस पर कोई नई बात मंजूर नहीं की जा सकती है। आडवाणी ने कहा था कि मधोक घमंडी हैं और अपना अहम ऊंचा रखते हैं।’ क्या जनसंघ की नींव पर खड़ी बीजेपी में रविवार को बहुमत का फैसला नरेंद्र मोदी के पक्ष में नहीं था? तो क्या आडवाणी अपनी ही कही बात पर पीछे हट गए और कभी जिस अहम का आरोप उन्होंने मधोक पर लगाया था, उसी अहम के शिकार वे खुद नहीं दिख रहे हैं?
मधोक के अलावा आडवाणी पर कई और नेताओं के साथ नाइंसाफी करने के आरोप बीजेपी के अंदर और बाहर लगते रहे हैं। कई लोगों को याद होगा कि आडवाणी से खराब रिश्तों के चलते ही मुरली मनोहर जोशी को 1993 में दूसरी बार बीजेपी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के अवसर से हाथ धोना पड़ा था।
कइयों को गड्ढा में गिराकर आगे निकले हैं आडवाणी
बीजेपी के भीतर आडवाणी के समर्थकों का मानना है कि आडवाणी पार्टी के शिखर पुरुष हैं और मोदी या किसी को भी कमान सौंपने से पहले उनकी राय ली जानी चाहिए। लेकिन सवाल उठता है कि क्या आडवाणी रविवार की शाम को जयपुर में एक सभा को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए संबोधित कर सकते हैं, लेकिन क्या वे तीन दिनों में गोवा में हुई बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में अपने विचार नहीं रख सकते थे? आडवाणी ने अपने आखिरी ब्लॉग में हिटलर, मुसोलिनी और महाभारत के जरिए बहुत कुछ कहने की कोशिश की थी। उनके कई समर्थकों का मानना है कि जिस मोदी को आडवाणी ने उंगली पकड़कर चलना सिखाया था, आज वही उनके खिलाफ हो गया है। लेकिन क्या आडवाणी ने अपने वरिष्ठों के साथ ऐसा नहीं किया था? 1957 में दीन दयाल उपाध्याय ने राजस्थान यूनिट से निकालकर आडवाणी को जनसंघ के संसदीय दल के सचिव बनाया था। पार्टी के भीतर ही आगे निकलने की होड़ में आडवाणी को कइयों को पीछे छोड़ा था, उनमें से कुछ उनके वरिष्ठ भी थे। 1953 में जब जनसंघ की राजस्थान ईकाई वजूद में आई थी तब आडवाणी सुंदर सिंह भंडारी के बाद दूसरे नंबर के नेता थे। लेकिन बाद के दशकों में आडवाणी बीजेपी के सबसे कद्दावर नेताओं में शुमार किए जाने लगे जबकि भंडारी बाद में गवर्नर बनकर रह गए। वहीं, 1973 में आडवाणी के पक्ष में अध्यक्ष पद के चुनाव से हटने वाले भाई महावीर भी गवर्नर बनकर ही रह गए।
आडवाणी ही चला रहे हैं निजी एजेंडा
आरएसएस ने आडवाणी के इस्तीफे पर तेवर सख्त कर लिए हैं। संघ के एक नेता के मुताबिक, ’2002 में गुजरात दंगों के बाद अटल बिहारी वाजपेयी और जसवंत सिंह जैसे नेता चाहते थे मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दें। लेकिन आडवाणी ने ऐन मौके पर दखल देते हुए वाजपेयी की इच्छा के उलट मोदी को पद पर बने रहने के लिए दबाव बनाया। वाजपेयी की बाद अनसुनी कर दी गई। लेकिन वाजपेयी पार्टी से बाहर नहीं गए और न ही उन्होंने कोई चिट्ठी लिखकर अपना इस्तीफा दिया। अब आडवाणी जी कह रहे हैं कि लोग अपना एजेंडा चला रहे हैं। निजी एजेंडे पर कौन काम कर रहा है? नरेंद्र मोदी ने एक बार भी नहीं कहा कि उन्हें पीएम बनाओ। एक ही आदमी के पास अपना एजेंडा है और वह हैं लालकृष्ण आडवाणी।’ वहीं, संघ के करीबी बीजेपी के एक नेता ने आडवाणी के अलग-थलग पड़ जाने पर कहा, ‘इस पार्टी में सर्वसम्मति बनाने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है। एक बार यह बन जाए और आप उसके खिलाफ जाएंगे तो आप किनारे किए ही जाएंगे।’
Source: http://www.republichind.com/?p=2472
कहते हैं इतिहास खुद को दोहराता है और कही गई बातें वापस आकर उसी व्यक्ति को परेशान करती हैं, जिसने कभी वही बातें कही थीं। इनदिनों लालकृष्ण आडवाणी के साथ ऐसा ही होता दिख रहा है। आडवाणी को अपने राजनैतिक जीवन के इस मोड़ पर कई सवालों के जवाब देने हैं। क्या खुद को बेहद अनुशासित मानने वाले आडवाणी ने अपने इस्तीफे की चिट्ठी सार्वजनिक कर पार्टी का अनुशासन नहीं तोड़ा है? क्या अनुशासन के नाम पर आडवाणी ने बलराज मधोक जैसे जनसंघी को पार्टी से बाहर का रास्ता नहीं दिखाया था? क्या नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार अभियान समिति का अगुवा बनने से आडवाणी को इतनी चोट पहुंची कि उन्हें अब बीजेपी में ज्यादातर लोग अपना ही हित साधते दिख रहे हैं? क्या आडवाणी ने खुद कई वरिष्ठों को ‘बौना’ बनाकर पार्टी और सरकार की मलाई नहीं खाई है? क्या आज आडवाणी को अपनी ही दवा कड़वी लग रही है?
अनुशासन के नाम पर बलराज मधोक को किया था बाहर
कभी दक्षिणपंथी राजनीति के धुरंधर रहे बलराज मधोक को लालकृष्ण आडवाणी ने अनुशासन तोड़ने और पार्टी के हितों के विपरीत काम करने जैसे आरोप लगाकर जनसंघ से बाहर कर दिया था। यह तब था जब मधोक उन लोगों में शुमार हैं जिन्होंने आडवाणी को जनसंघ की राजनीति में स्थापित करवाया था। इतिहासकार क्रिस्टोफर जेफरलॉट ने अपनी किताब ‘द हिंदू नेशनलिस्ट मूवमेंट एंड इंडियन पॉलिटिक्स: 1925 टू द 1990…’ में आडवाणी द्वारा बलराज मधोक को निकाले जाने के मुद्दे पर लिखा है, ‘फरवरी, 1973 में कानपुर में जनसंघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सामने एक नोट पेश किया। उस नोट में मधोक ने आर्थिक नीति, बैंकों के राष्ट्रीयकरण पर जनसंघ की विचारधारा के उलट बातें कही थीं। इसके अलावा मधोक ने कहा था कि जनसंघ पर आरएसएस का असर बढ़ता जा रहा है। मधोक ने संगठन मंत्रियों को हटाकर जनसंघ की कार्यप्रणाली को ज्यादा लोकतांत्रिक बनाने की मांग भी उठाई थी।
आडवाणी उस समय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। वे मधोक की इन बातों से इतने नाराज हो गए कि आडवाणी ने मधोक को पार्टी का अनुशासन तोड़ने और पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल होने की वजह से उन्हें तीन साल के लिए पार्टी से बाहर कर दिया था। इस घटना से बलराज मधोक इतने आहत हुए थे कि फिर कभी नहीं लौटे। दिलचस्प बात यह है कि मधोक को बाहर का रास्ता दिखाते हुए आडवाणी ने पार्टी के अलिखित नियम की चर्चा की थी, जिसके मुताबिक जिन मुद्दों पर बहुमत के आधार पर फैसला ले लिया गया हो उस पर कोई नई बात मंजूर नहीं की जा सकती है। आडवाणी ने कहा था कि मधोक घमंडी हैं और अपना अहम ऊंचा रखते हैं।’ क्या जनसंघ की नींव पर खड़ी बीजेपी में रविवार को बहुमत का फैसला नरेंद्र मोदी के पक्ष में नहीं था? तो क्या आडवाणी अपनी ही कही बात पर पीछे हट गए और कभी जिस अहम का आरोप उन्होंने मधोक पर लगाया था, उसी अहम के शिकार वे खुद नहीं दिख रहे हैं?
मधोक के अलावा आडवाणी पर कई और नेताओं के साथ नाइंसाफी करने के आरोप बीजेपी के अंदर और बाहर लगते रहे हैं। कई लोगों को याद होगा कि आडवाणी से खराब रिश्तों के चलते ही मुरली मनोहर जोशी को 1993 में दूसरी बार बीजेपी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के अवसर से हाथ धोना पड़ा था।
कइयों को गड्ढा में गिराकर आगे निकले हैं आडवाणी
बीजेपी के भीतर आडवाणी के समर्थकों का मानना है कि आडवाणी पार्टी के शिखर पुरुष हैं और मोदी या किसी को भी कमान सौंपने से पहले उनकी राय ली जानी चाहिए। लेकिन सवाल उठता है कि क्या आडवाणी रविवार की शाम को जयपुर में एक सभा को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए संबोधित कर सकते हैं, लेकिन क्या वे तीन दिनों में गोवा में हुई बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में अपने विचार नहीं रख सकते थे? आडवाणी ने अपने आखिरी ब्लॉग में हिटलर, मुसोलिनी और महाभारत के जरिए बहुत कुछ कहने की कोशिश की थी। उनके कई समर्थकों का मानना है कि जिस मोदी को आडवाणी ने उंगली पकड़कर चलना सिखाया था, आज वही उनके खिलाफ हो गया है। लेकिन क्या आडवाणी ने अपने वरिष्ठों के साथ ऐसा नहीं किया था? 1957 में दीन दयाल उपाध्याय ने राजस्थान यूनिट से निकालकर आडवाणी को जनसंघ के संसदीय दल के सचिव बनाया था। पार्टी के भीतर ही आगे निकलने की होड़ में आडवाणी को कइयों को पीछे छोड़ा था, उनमें से कुछ उनके वरिष्ठ भी थे। 1953 में जब जनसंघ की राजस्थान ईकाई वजूद में आई थी तब आडवाणी सुंदर सिंह भंडारी के बाद दूसरे नंबर के नेता थे। लेकिन बाद के दशकों में आडवाणी बीजेपी के सबसे कद्दावर नेताओं में शुमार किए जाने लगे जबकि भंडारी बाद में गवर्नर बनकर रह गए। वहीं, 1973 में आडवाणी के पक्ष में अध्यक्ष पद के चुनाव से हटने वाले भाई महावीर भी गवर्नर बनकर ही रह गए।
आडवाणी ही चला रहे हैं निजी एजेंडा
आरएसएस ने आडवाणी के इस्तीफे पर तेवर सख्त कर लिए हैं। संघ के एक नेता के मुताबिक, ’2002 में गुजरात दंगों के बाद अटल बिहारी वाजपेयी और जसवंत सिंह जैसे नेता चाहते थे मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दें। लेकिन आडवाणी ने ऐन मौके पर दखल देते हुए वाजपेयी की इच्छा के उलट मोदी को पद पर बने रहने के लिए दबाव बनाया। वाजपेयी की बाद अनसुनी कर दी गई। लेकिन वाजपेयी पार्टी से बाहर नहीं गए और न ही उन्होंने कोई चिट्ठी लिखकर अपना इस्तीफा दिया। अब आडवाणी जी कह रहे हैं कि लोग अपना एजेंडा चला रहे हैं। निजी एजेंडे पर कौन काम कर रहा है? नरेंद्र मोदी ने एक बार भी नहीं कहा कि उन्हें पीएम बनाओ। एक ही आदमी के पास अपना एजेंडा है और वह हैं लालकृष्ण आडवाणी।’ वहीं, संघ के करीबी बीजेपी के एक नेता ने आडवाणी के अलग-थलग पड़ जाने पर कहा, ‘इस पार्टी में सर्वसम्मति बनाने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है। एक बार यह बन जाए और आप उसके खिलाफ जाएंगे तो आप किनारे किए ही जाएंगे।’
Source: http://www.republichind.com/?p=2472
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