ऐसा क्या कुचक्र चला है हिन्दू समाज पर कि जिसको भी हिन्दू समाज ‘‘पूजनीय‘‘
मानता है, उसी की अपने हाथों ऐसी दुदर्शा कर रखी है जो दुश्मन भी ना करने
की हिम्मत करें।
गाय को ही लीजिये- पारम्परिक रूप से हिन्दू समाज में गाय को मां का दर्जा
दिया गया है और पूजनीय माना जाता रहा है। घर में पकी पहली रोटी गोमाता को
खिलाकर ही परिवार स्वंय कुछ खाता था। आज देश के हर छोटे बड़े शहर में हमें
गोमाता कूड़े के खत्तों में कचरा खाती दिखती है। भूख से बेहाल गइया
प्लास्टिक तक की थैलियां खा जाती हैं। यह हाल सिर्फ उन गायों का ही नहीं
जिन्हें दूध बंद होने की अवस्था में उनके मालिक लावारिस छोड़ देते है,
बल्कि उन गायों का भी है जो दूध देती भी है, परन्तु क्यूंकि भैंस की तुलना
में देसी गाय कम दूध देती है, इसलिये उनके मालिक उन्हें भरपेट चारा देने की
जरूरत नहीं समझते। देश के कई हिस्सो में देसी गाय दुर्लभ होती जा रही है -
उसकी जगह अमेरीका की जरसी गाय ने ले ली है। अमेरीकन गाय को भले ही हिन्दु
समाज पूजनीय ना मानता हो, पर कम से कम उसके मालिक उसे चारा तो भरपेट खिलाते
है क्योंकि वे दूघ अच्छा देती है। इस अवहेलना की वजह से देसी गाय, जिसे हम
भारतीय संस्कृति का पूजनीय प्रतीक मानते है, की नस्ल में भारी गिरावट आई
है, हालंाकि देसी गाय का दूघ अमृत समान अतुल्य है।
गोहत्या को लेकर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगलने वालों की व दंगे फसाद
भड़काने वालो की कमी नहीं है। पर अपनी गाय माता की सेवा व रक्षा करने वालो
की तादाद कम होती जा रही है।
मेरे पड़ोस में एक गो-चिन्तक कूड़े के खत्तों से गोमाता को कचरा खाने की
बदहाली से बचाने हेतू एक रेड़ी पर स्टील के बड़े बडे ड्रम रखवा कर मौहल्ले
में घुमवाते हैं - इस संदेश के साथ कि गृहणियां अपना बचा खुचा जूठा भोजन,
सूखी रोटियां, फलों व सब्लियों के छिलके उन ड्रमों में पड़ोस की भूख से
बेहाल गोमाताओ के भोजन के लिये डाल दें। एक ओर तो यह बहुत ही सराहनीय कार्य
लगता है। परन्तु दूसरी ओर यह सोचकर मन दुखता है कि जिस देश में हर गृहणी
रसोई में पकी पहली रोटी गाय से मुंह छुआ करके ही अन्य सदस्यों को भोजन
खिलाती थी, जिस देश में गाय की पूजा और चारा डाले बिना घर में खाना नहीं
पकता था, आज हम उसी गोमाता को रसोई का बचा खुचा, सडा गला खाना देने में भी
आलस करते है - कौन अलग थैलियों मे आम या केले के छिलको को डाल गेट तक ले
जाये? आज जिस आटे में कीड़ा लग गया, उसे गाय के आगे डाल दिया जाता है।
यही हाल इस देश की नदियों का है। हिन्दू समाज गंगा, यमुना व अन्य कई नदियों
को पूजनीय मानता है। यह मान्यता आज भी जीवन्त है कि गंगा स्नान भर करने से
जीवन भर के पाप धुल जाते है। इस विश्वास को लेकर बड़े बड़े कुम्भ आयोजित
किये जाते है व करोड़ों लोग हर साल गंगा में जाकर डूबकी लगाते है। परन्तु
उसी गंगा, यमुना मैया में अपने शहरों के सीवर उड़ेले जा रहे है। हमारी
‘‘पूजनीय‘‘ नदियां आज इतनी विषैली और मैली हो चुकी हैं कि उनमें कोई जीव
जन्तु जिन्दा नहीं बचा। गंगा यमुना के तटों पर व पानी में तैरता इतना कचरा
मिलेगा, उनके पास जाने पर इतनी दुर्गध् आती है कि दस मिनट खड़ा होना दूभर
हो जाता है।
यही दुदर्शा अघिकतर मंन्दिरों की है। दुनिया में किसी और घर्म के पूजा स्थल
इतने गंदे, इतने बदहाल नहीं है जितने हम हिन्दुओं के अघिकतर मंदिर। इन
मंदिरों में चढावे की कोई कमी नहीं, भक्तों की कतारें लगी रहती है, पर साफ़
सफाई का घ्यान रखने की किसी को सुध नही - उन पुजारियो को भी नहीं जो वहां
विराजमान देवी देवताओ की सेवा के लिये रखे गये है। जो समाज अपने मंदिरो की
अपने पूजा स्थलों की गरिमा बनाये रखने की क्षमता खो बैठा है, वह समाज एक
जीवन्त स्वामिमानी समाज कहलाने का हकदार कैसे हो सकता है? कृष्ण नगरी
वृन्दावन व शिवनगरी वाराणसी धार्मिक स्थलों में बहुत प्राथमिकता रखते है।
पर उन शहरो की गंदगी, खुले सीवर की भयंकर बदबू शर्मसार कर देती है।
इसी प्रकार हिन्दू समाज स्त्री को पूजनीय मानने का दावा करता है, हर स्त्री
को ब्रह्मांड की महाशक्ति का साक्षात् रूप मानने की डींग मारता है।
परन्तु वही समाज आज बेटियों के जन्म पर मातम मनाने के लिये व उनकी भ्रूण
हत्या के लिये विश्व भर में कुख्यात है। वही पुरूष जो मंदिर मे जाकर
देवियों का पूजन व तरह तरह के भजन कीर्तन, कर्म कांड करता है, घर में अपनी
बेटी, बहन, मां या पत्नी के साथ दुव्र्यवहार करने में जरा झिझक महसूस नहीं
करता।
कहने को औरत घर की लक्ष्मी है, बहन और भाई का रिश्ता पवित्र बंघन है। पर
बहन को पारिवारिक सम्पत्ति में हिस्सा देने की बात पर खून खराबे की नौबत आ
जाती है। सम्पत्ति में बेदखल करने के बावजूद बेटियों को ‘‘बोझ‘‘ माना जाता
है क्योंकि शादी में दहेज देना पड़ता है। वही भाई जो बहन से राखी बंधवा
रक्षा का वायदा करता है, उसी बहन के विधवा होने पर या पति के घर से निकाल
दिये जाने पर मायके में रहने का अधिकार देने को तैयार नहीं होता, क्योंकि
मां पिता का घर सिर्फ भाइयों और भाभियों की मिल्कियत बन जाता है। वही
परिवार जो नवरात्रों में कन्या पूजन करता है, अगले ही दिन अल्ट्रासाऊंड
टैस्ट करा अजन्मी बेटी की गर्भपात द्वारा हत्या कराने से नहीं चूकता।
ऐसे अनेक उदाहरण सिद्ध करते है कि हिन्दू समाज के अघिकतर लोग अपने घर्म और
संस्कृति के मूल सिद्धांतों से केवल रिचुअल के जरिये जुड़े है और रिचुअल भी
ज्यादातर फिल्मी ढंग के होते जा रहे है।
आये दिन हमारे समाज सुधारक सरकार से नये नये उल्टे सीधे, औने-बौने कानूनों
की मांग करते रहते है। क्यंू ना यह मांग की जाये कि हिन्दू समाज को तब तक
पूजा के अघिकार से वंचित कर दिया जाये जब तक वह इस बात को फिर से आत्मसात्
नहीं करता कि हमारी संस्कृति में ‘‘पूजनीय‘‘ शब्द के सही मायने क्या रहे है
और उसके साथ क्या क्या जिम्मेदारियां जुड़ जाती हैं। पूजा के हकदार वही
लोग हैं जो ‘‘पूजनीय‘‘ शब्द की गरिमा को पालन करने की क्षमता रखते है।
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