Sunday, 16 June 2013 12:13
जनसत्ता 16 जून, 2013: पिछले हफ्ते की राजनीतिक गतिविधियों के बाद एक बात बिल्कुल स्पष्ट हो गई है और वह यह कि नरेंद्र मोदी खुद बन गए हैं अगले लोक सभा चुनावों का सबसे बड़ा मुद्दा। ऐसा लगने लगा है जैसे देश की सारी राजनीति इनसे चल रही है। मोदी की वजह से बन सकता है फिर से एक बार तीसरा मोर्चा। वे कांग्रेस के लिए बड़ी परेशानी बन चुके हैं। मोदी की वजह से भारतीय जनता पार्टी के बुजुर्ग रथयात्री ने किया था 24 घंटों का त्यागपत्र वाला ड्रामा। सो अच्छा समय है नरेंद्र मोदी की खूबियों और कमियों के बारे में बातें करने का।
कौन सी बात है नरेंद्र मोदी में जिससे आकर्षित हुए हैं इस देश के इतने नौजवान, उद्योगपति, राजनीतिक कार्यकर्ता और कुछ मुट्ठी भर राजनीतिक पंडित भी। मेरा मानना है कि मोदी की खासियत यह है कि वे पहले राजनेता हैं, पंडित नेहरू के बाद जिन्होंने भारत के लिए एक नई आर्थिक दिशा दिखाने की कोशिश की है। ऐसा अटल बिहारी वाजपेयी ने भी नहीं किया था प्रधानमंत्री बनने के बाद क्योंकि वे खुद नेहरू के पक्के मुरीद थे, सो सोच भी नहीं सकते थे कि नेहरू की आर्थिक दृष्टि में कोई नुक्स हो सकता है। हां, कुछ सुधार जरूर किए जिस तरह कई मुख्यमंत्री भी आजकल करते हैं लेकिन आधार सबका रहा है नेहरू का समाजवाद। इस आर्थिक सोच का बुनियादी सिद्धांत है कि सरकार धन पैदा करेगी देश के लिए सरकारी कारखानों को चला कर और इस धन से जनता का कल्याण करेगी।
नरेंद्र मोदी का आर्थिक सोच बिल्कुल अलग है। बार-बार कह चुके हैं कि उनकी राय में सरकार को कारोबार करने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। सरकार का काम सिर्फ इतना है कि वह ऐसा माहौल बनाए, ऐसे नियम बनाए, जिनसे निवेशकों के कारोबार सफल हों। मोदी ने भारत के लिए जो सपना देखा है उसमें गरीबी हटाने के अलावा संपन्नता की भी जगह है। यह सपना बड़ा सुहाना लगता है इन दिनों जब सोनिया-मनमोहन सरकार की नीतियों ने भारत को बेहाल करके रख दिया है। रुपए की कीमत गिर कर आधी हो गई है, जीडीपी की वार्षिक वृद्धि भी आधी हो गई और निवेशक इस डर से निवेश नहीं कर रहे हैं क्योंकि सरकार कभी भी, बिना बताए या तो टैक्स देने के नियम बदल देती है या निवेश करने के।
अर्थव्यवस्था इतनी बेहाल है कि वित्त मंत्री ने खुद माना है कि दस लाख करोड़ रुपए की योजना अटकी हुई है किसी न किसी कारण। कुछ पर्यावरण मंत्रालय की इजाजत न मिलने की वजह से कुछ इसलिए कि तहकीकातों, भ्रष्टाचार और शक के इस माहौल में सरकारी अफसर फैसले करना नहीं चाहते हैं। यानी भारत का आर्थिक महाशक्ति बनने का सपना फिलहाल टूट चुका है। इस माहौल में जब मोदी बातें करते हैं सुशासन, संपन्नता और समृद्धि की तो क्यों न अच्छी लगें।
मोदी की समस्या यह है कि उनके संपन्न भारत के सपने पर आज भी 2002 का काला साया मंडराता है और उस साए को दूर हटाने की उन्होंने कोई कोशिश नहीं की है। जब तक उनकी राजनीति गुजरात तक सीमित थी वे आसानी से उस साए की अनदेखी कर सकते थे लेकिन राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में जो अब कदम रखा है तो उन्हें देने पड़ेंगे उन सवालों के जवाब जो उन्होंने अभी तक नहीं दिए हैं कभी।
जो लोग मोदी को मेरे से अच्छा जानते हैं बताते हैं मुझे कि उन्होंने पहले दिन से ही जान लिया था कि सांप्रदायिक हिंसा उनसे रुक नहीं सकेगी। सो दंगा शुरू होते ही उन्होंने रक्षामंत्री से सेना की मदद मांगी थी। तत्कालीन रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडीज ने फौरन आदेश दिया कि गुजरात की सीमाओं से सैनिक टुकड़ियां हटा कर अमदाबाद पहुंचाई जाएं। लेकिन उन्हें आने में 48 घंटे लगे और उन 48 घंटों में हुए नरोदा-पाटिया जैसे शर्मनाक जनसंहार। अगर यह बात सच है तो मोदी को कहनी पड़ेगी ऊंची आवाज में बार-बार।
राजनीतिक तौर पर मोदी के सामने एक और गंभीर समस्या बनी हुई है। पिछले हफ्ते हम सब ने देखा किस तरह राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक के कहने पर आडवाणी ने अपना इस्तीफा वापस ले लिया। इससे साफ जाहिर हुआ कि भाजपा का दस, जनपथ नागपुर में है। और नागपुर में बैठे हैं ऐसे लोग संघ के मुख्यालय में जिनके राजनीतिक और आर्थिक सोच बाबा आदम के जमाने के हैं। ये लोग कभी भी भारत को एक आधुनिक देश नहीं बनने दे सकते हैं क्योंकि इनकी प्राथमिकता गलत है। मंदिर-मस्जिद के झगड़ों से है इन लोगों का वास्ता और धर्म-महजब की बारीकियों में उलझे रहते हैं अक्सर। संघ बेड़ी बन कर रोके हुए है भाजपा के पांव। क्या मोदी इस बेड़ी को तोड़ सकेंगे।
नरेंद्र मोदी बन तो सकते हैं भारत के प्रधानमंत्री 2014 में लेकिन सिर्फ तब अगर वे इस देश के डरे हुए मुसलिम मतदाताओं को भरोसा दिला सकेंगे कि जो गुजरात में 2002 में हुआ था वह कभी दुबारा न होगा? ऐसा करना आसान न होगा क्योंकि इस देश के आम मुसलिम नागरिक की नजरों में नरेंद्र मोदी नायक नहीं, खलनायक हैं।
तवलीन सिंह
जनसत्ता 16 जून, 2013: पिछले हफ्ते की राजनीतिक गतिविधियों के बाद एक बात बिल्कुल स्पष्ट हो गई है और वह यह कि नरेंद्र मोदी खुद बन गए हैं अगले लोक सभा चुनावों का सबसे बड़ा मुद्दा। ऐसा लगने लगा है जैसे देश की सारी राजनीति इनसे चल रही है। मोदी की वजह से बन सकता है फिर से एक बार तीसरा मोर्चा। वे कांग्रेस के लिए बड़ी परेशानी बन चुके हैं। मोदी की वजह से भारतीय जनता पार्टी के बुजुर्ग रथयात्री ने किया था 24 घंटों का त्यागपत्र वाला ड्रामा। सो अच्छा समय है नरेंद्र मोदी की खूबियों और कमियों के बारे में बातें करने का।
कौन सी बात है नरेंद्र मोदी में जिससे आकर्षित हुए हैं इस देश के इतने नौजवान, उद्योगपति, राजनीतिक कार्यकर्ता और कुछ मुट्ठी भर राजनीतिक पंडित भी। मेरा मानना है कि मोदी की खासियत यह है कि वे पहले राजनेता हैं, पंडित नेहरू के बाद जिन्होंने भारत के लिए एक नई आर्थिक दिशा दिखाने की कोशिश की है। ऐसा अटल बिहारी वाजपेयी ने भी नहीं किया था प्रधानमंत्री बनने के बाद क्योंकि वे खुद नेहरू के पक्के मुरीद थे, सो सोच भी नहीं सकते थे कि नेहरू की आर्थिक दृष्टि में कोई नुक्स हो सकता है। हां, कुछ सुधार जरूर किए जिस तरह कई मुख्यमंत्री भी आजकल करते हैं लेकिन आधार सबका रहा है नेहरू का समाजवाद। इस आर्थिक सोच का बुनियादी सिद्धांत है कि सरकार धन पैदा करेगी देश के लिए सरकारी कारखानों को चला कर और इस धन से जनता का कल्याण करेगी।
नरेंद्र मोदी का आर्थिक सोच बिल्कुल अलग है। बार-बार कह चुके हैं कि उनकी राय में सरकार को कारोबार करने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। सरकार का काम सिर्फ इतना है कि वह ऐसा माहौल बनाए, ऐसे नियम बनाए, जिनसे निवेशकों के कारोबार सफल हों। मोदी ने भारत के लिए जो सपना देखा है उसमें गरीबी हटाने के अलावा संपन्नता की भी जगह है। यह सपना बड़ा सुहाना लगता है इन दिनों जब सोनिया-मनमोहन सरकार की नीतियों ने भारत को बेहाल करके रख दिया है। रुपए की कीमत गिर कर आधी हो गई है, जीडीपी की वार्षिक वृद्धि भी आधी हो गई और निवेशक इस डर से निवेश नहीं कर रहे हैं क्योंकि सरकार कभी भी, बिना बताए या तो टैक्स देने के नियम बदल देती है या निवेश करने के।
अर्थव्यवस्था इतनी बेहाल है कि वित्त मंत्री ने खुद माना है कि दस लाख करोड़ रुपए की योजना अटकी हुई है किसी न किसी कारण। कुछ पर्यावरण मंत्रालय की इजाजत न मिलने की वजह से कुछ इसलिए कि तहकीकातों, भ्रष्टाचार और शक के इस माहौल में सरकारी अफसर फैसले करना नहीं चाहते हैं। यानी भारत का आर्थिक महाशक्ति बनने का सपना फिलहाल टूट चुका है। इस माहौल में जब मोदी बातें करते हैं सुशासन, संपन्नता और समृद्धि की तो क्यों न अच्छी लगें।
मोदी की समस्या यह है कि उनके संपन्न भारत के सपने पर आज भी 2002 का काला साया मंडराता है और उस साए को दूर हटाने की उन्होंने कोई कोशिश नहीं की है। जब तक उनकी राजनीति गुजरात तक सीमित थी वे आसानी से उस साए की अनदेखी कर सकते थे लेकिन राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में जो अब कदम रखा है तो उन्हें देने पड़ेंगे उन सवालों के जवाब जो उन्होंने अभी तक नहीं दिए हैं कभी।
जो लोग मोदी को मेरे से अच्छा जानते हैं बताते हैं मुझे कि उन्होंने पहले दिन से ही जान लिया था कि सांप्रदायिक हिंसा उनसे रुक नहीं सकेगी। सो दंगा शुरू होते ही उन्होंने रक्षामंत्री से सेना की मदद मांगी थी। तत्कालीन रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडीज ने फौरन आदेश दिया कि गुजरात की सीमाओं से सैनिक टुकड़ियां हटा कर अमदाबाद पहुंचाई जाएं। लेकिन उन्हें आने में 48 घंटे लगे और उन 48 घंटों में हुए नरोदा-पाटिया जैसे शर्मनाक जनसंहार। अगर यह बात सच है तो मोदी को कहनी पड़ेगी ऊंची आवाज में बार-बार।
राजनीतिक तौर पर मोदी के सामने एक और गंभीर समस्या बनी हुई है। पिछले हफ्ते हम सब ने देखा किस तरह राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक के कहने पर आडवाणी ने अपना इस्तीफा वापस ले लिया। इससे साफ जाहिर हुआ कि भाजपा का दस, जनपथ नागपुर में है। और नागपुर में बैठे हैं ऐसे लोग संघ के मुख्यालय में जिनके राजनीतिक और आर्थिक सोच बाबा आदम के जमाने के हैं। ये लोग कभी भी भारत को एक आधुनिक देश नहीं बनने दे सकते हैं क्योंकि इनकी प्राथमिकता गलत है। मंदिर-मस्जिद के झगड़ों से है इन लोगों का वास्ता और धर्म-महजब की बारीकियों में उलझे रहते हैं अक्सर। संघ बेड़ी बन कर रोके हुए है भाजपा के पांव। क्या मोदी इस बेड़ी को तोड़ सकेंगे।
नरेंद्र मोदी बन तो सकते हैं भारत के प्रधानमंत्री 2014 में लेकिन सिर्फ तब अगर वे इस देश के डरे हुए मुसलिम मतदाताओं को भरोसा दिला सकेंगे कि जो गुजरात में 2002 में हुआ था वह कभी दुबारा न होगा? ऐसा करना आसान न होगा क्योंकि इस देश के आम मुसलिम नागरिक की नजरों में नरेंद्र मोदी नायक नहीं, खलनायक हैं।
Source: http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/47046-2013-06-16-06-44-26#.Ub1nNIrlY_g.twitter
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