Published: Friday, Dec 14,2012, 01:08 IST
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इसलिए जब अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया जैसे लोग अपने-अपने NGOs के जरिए, फ़ोर्ड फ़ाउण्डेशन की मदद से पैसा लेकर बड़ा आंदोलन खड़े करने की राह पकड़ते हैं, तो स्वाभाविक ही मन में सवाल उठने लगते हैं कि आखिर इनकी मंशा क्या है? भारत के राजनैतिक और सामाजिक माहौल में NGOs की बढ़ती ताकत, कहाँ से शक्ति पा रही है? क्या सभी NGOs दूध के धुले हैं या इन में कई प्रकार की “काली-धूसर-मटमैली भेड़ें” घुसपैठ कर चुकी हैं और अपने-अपने गुप्त एजेण्डे पर काम कर रही हैं? जी हाँ, वास्तव में ऐसा ही है… क्योंकि सुनने में भले ही NGO शब्द बड़ा ही रोमांटिक किस्म का समाजसेवी जैसा लगता हो, परन्तु पिछले कुछ वर्षों में इन NGOs की संदिग्ध गतिविधियों ने सुरक्षा एजेंसियों और सरकार के कान खड़े कर दिए हैं। इस बेहिसाब धन के प्रवाह की वजह से, इन संगठनों के मुखियाओं में भी आपसी मनमुटाव, आरोप-प्रत्यारोप और वैमनस्य बढ़ रहा है। खुद अरुंधती रॉय ने अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया के NGO, “कबीर” पर फ़ोर्ड फ़ाउण्डेशन के पैसों का दुरुपयोग करने का आरोप लगाया था। उल्लेखनीय है कि फ़ोर्ड की तरफ़ से “कबीर” नामक संस्था को 1 लाख 97 हजार डॉलर का चन्दा दिया गया है। केजरीवाल के साथ दिक्कत यह हो गई कि “सिर्फ़ मैं ईमानदार, बाकी सब चोर…” जैसा शीर्षासन करने के चक्कर में इन्होंने अण्णा हजारे को भी 2 करोड़ रुपए लौटाने की पेशकश की थी, जिसे अण्णा ने ठुकरा दिया था, लेकिन फ़िलहाल केजरीवाल “देश के एकमात्र राजा हरिश्चन्द्र” बनने की कोशिशों में सतत लगे हुए हैं, और मीडिया भी इनका पूरा साथ दे रहा है। बहरहाल… बात हो रही थी NGOs के “धंधे” के सफ़ेद-स्याह पहलुओं की… इसलिए आगे बढ़ते हैं…
सरकार द्वारा दिए गए आँकड़ों के मुताबिक देश के सर्वोच्च NGOs को लाखों रुपए दान करने वाले 15 दानदाताओं में से सात अमेरिका और यूरोप में स्थित हैं, जिन्होंने सिर्फ़ 2009-2010 में भारत के NGOs को कुल 10,000 करोड़ का चन्दा दिया है। अब यह तो कोई बच्चा भी बता सकता है कि जो संस्था या व्यक्ति अरबों रुपए का चन्दा दे रहा है वह “सिर्फ़ समाजसेवा” के लिए तो नहीं दे रहा होगा, ज़ाहिर है कि उसके भी “कुछ खुले और गुप्त काम” इन NGOs को करने ही पड़ेंगे। उड़ीसा में स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या की जाँच में भी चर्च समर्थित और पोषित कई NGOs के नाम सामने आए थे, जो कि माओवादियों की छिपी हुई, नकाबधारी पनाहगाह हैं।
हाल ही में जब तमिलनाडु के कुडनकुलम और महाराष्ट्र के जैतापूर में परमाणु संयंत्र स्थापित करने के विरोध में जिस आंदोलनरत भीड़ ने प्रदर्शन और हिंसा की, जाँच में पाया गया कि उसे भड़काने के पीछे कई संदिग्ध NGOs काम कर रहे थे, और प्रधानमंत्री ने साफ़तौर पर अपने बयान में इसका उल्लेख भी किया। परमाणु संयंत्रों का विरोध करने वाले NGOs को मिलने वाले विदेशी धन और उनके निहित स्वार्थों के बारे में भी जाँच चल रही है, जिसमें कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। सरकार ने “बहुत देर के बाद” विदेशी अनुदान प्राप्त सभी NGOs की कड़ाई से जाँच करने का फ़ैसला किया है, परन्तु सरकार की यह मंशा खुद अपने-आप में ही संशय के घेरे में है, क्योंकि पहले तो ऐसे सभी NGOs को फ़लने-फ़ूलने और पैर जमाने का मौका दिया गया, लेकिन जब परमाणु संयंत्रों को लेकर अमेरिका और फ़्रांस की रिएक्टर कम्पनियों के हित प्रभावित होने लगे तो अचानक इन पर नकेल कसने की बातें की जाने लगीं, मानो सरकार कहना चाहती हो कि विदेश से पैसा लेकर तुम चाहे धर्मान्तरण करो, चाहे माओवादियों की मदद करो, चाहे शिक्षा और समाज में पश्चिमी विचारों का प्रचार-प्रसार करो, लेकिन अमेरिका और फ़्रांस के हितों पर चोट पहुँची तो तुम्हारी खैर नहीं…। क्योंकि कुडनकुलम की संदिग्ध NGOs गतिविधियों को लेकर सरकार “अचानक” इतनी नाराज़ हो गई कि जर्मनी के एक नागरिक को देश-निकाला तक सुना दिया।
प्रधानमंत्री की असल समस्या यह है कि सोनिया गाँधी की किचन-कैबिनेट (यानी NAC) ने तो नीति-निर्माण और उसके अनुपालन का जिम्मा देश भर में फ़ैले अपने “बगलबच्चों” यानी NGOs को “आउटसोर्स” कर दिया है। NAC में जमे बैठे इन्हीं तमाम NGO वीरों ने ही, अपने अफ़लातून दिमाग(?) से “मनरेगा” की योजना को जामा पहनाया है, जिसमें अकुशल मजदूर को साल में कम से कम 6 माह तक 100 रुपए रोज का काम मिलेगा। दिखने में तो यह योजना आकर्षक दिखती है, परन्तु जमीनी हालात भयावह हैं। “मनरेगा” में भ्रष्टाचार तो खैर अपनी जगह है ही, परन्तु इस योजना के कारण, जहाँ एक तरफ़ बड़े और मझोले खेत मालिकों को ऊँची दर देने के बावजूद मजदूर नहीं मिल रहे हैं, वहीं दूसरी ओर जो निम्नवर्ग के (BPL) खेत मालिक हैं, वे भी अपनी स्वयं की खेती छोड़कर सरकार की इन “निकम्मी कार्ययोजनाओं” में 100 रुपए रोज लेकर अधिक खुश हैं। क्योंकि “मनरेगा” के तहत इन मजदूरों को जो काम करना है, उसमें कहीं भी जवाबदेही निर्धारित नहीं है, अर्थात एक बार मजदूर इस योजना में रजिस्टर्ड होने के बाद वह किसी भी “क्वालिटी” का काम करे, उसे 100 रुपए रोज मिलना ही है।
मनरेगा की वजह से देश के खजाने पर पड़ने वाले भारी-भरकम “निकम्मे बोझ” की
तरफ़ किसी का भी ध्यान नहीं है, वहीं अब NGO वादियों की यह “गैंग” खाद्य
सुरक्षा बिल को भी लागू करवाने पर आमादा हो रही है, जबकि खाद्य सुरक्षा बिल
के कारण बजट पर पड़ने वाले कुप्रभाव का विरोध प्रणब मुखर्जी और शरद पवार
पहले ही खुले शब्दों में कर चुके हैं। इससे शक उत्पन्न होता है कि यह NGO
वादी गैंग और इसके तथाकथित “सामाजिक कर्म” भारत के ग्रामवासियों को
आत्मनिर्भर बनाने की बजाय “मजदूर” बनाने वहीं दूसरी ओर केन्द्र और राज्यों
के बजट पर खतरनाक बोझ बढ़ाकर उसे चरमरा देने पर क्यों अड़ी हुई है? देश की
अर्थव्यवस्था को ऐसा दो-तरफ़ा नुकसान पहुँचाने में इन NGO वालों का कौन सा
छिपा हुआ एजेण्डा है? इन लोगों की ऐसी “बोझादायक” और गरीब जनता को “कामचोर”
बनाने वाली “नीतियों” के पीछे कौन सी ताकत है?
दुर्भाग्य से देश के प्रधानमंत्री दो पाटों के बीच फ़ँस चुके हैं, पहला पाटा है न्यूक्लियर रिएक्टर निर्माताओं की शक्तिशाली लॉबी, जबकि दूसरा पाट है देश के भीतर कार्यरत शक्तिशाली NGOs की लॉबी, जो कि दिल्ली के सत्ता गलियारों में मलाई चाटने के साथ-साथ आँखें दिखाने में भी व्यस्त है।
केन्द्र सरकार ने ऐसे 77 NGOs को जाँच और निगाहबीनी के दायरे में लिया है, जिन पर संदेह है कि ये भारत-विरोधी गतिविधियों में संलग्न हैं। भारत के गृह मंत्रालय ने पाया है कि इन NGOs की कुछ “सामाजिक आंदोलन” गतिविधियाँ भारत में अस्थिरता, वैमनस्य और अविश्वास फ़ैलाने वाली हैं। राजस्व निदेशालय के विभागीय जाँच ब्यूरो ने पाया है कि देश के हजारों NGOs को संदिग्ध स्रोतों से पैसा मिल रहा है, जिसे वे समाजसेवा के नाम पर धर्मान्तरण को बढ़ावा देने और माओवादी / आतंकवादी गतिविधियों में फ़ूँके जा रहे हैं। भारत में गत वर्ष तक 68,000 NGOs पंजीकृत थे। भारत के गृह सचिव भी चेता चुके हैं कि NGOs को जिस प्रकार से अरब देशों, यूरोप और स्कैण्डेनेवियाई देशों से भारी मात्रा में पैसा मिल रहा है, उसका हिसाब-किताब ठीक नहीं है, तथा जिस काम के लिए यह पैसा दिया गया है, या चन्दा पहुँचाया जा रहा है, वास्तव में जमीनी स्तर वह काम नहीं हो रहा। अर्थात यह पैसा “किसी और काम” की ओर मोड़ा जा रहा है।
जब 2008 में तमिलनाडु में कोडाईकनाल के जंगलों में माओवादी गतिविधियों में बढ़ोतरी देखी गई थी, तब इसमें एक साल पहले तीन माओवादी गिरफ़्तार हुए थे, जिनका नाम था विवेक, एलांगो और मणिवासगम, जो कि एक गुमनाम से NGO के लिए काम करते थे। इसे देखते हुए चेन्नै पुलिस ने चेन्नई के सभी NGOs के बैंक खातों और विदेशों से उन्हें मिलने वाले धन के बारे में जाँच आरम्भ कर दी है। चेन्नई पुलिस इस बात की भी जाँच कर रही है कि तमिलनाडु में आई हुई सुनामी के समय जिन तटवर्ती इलाकों के गरीबों की मदद के नाम पर तमाम NGOs को भारी मात्रा में पैसा मिला था, उसका क्या उपयोग किया गया? क्योंकि कई अखबारों की ऐसी रिपोर्ट है कि सुनामी पीड़ितों की मदद के नाम पर उन्हें ईसाई धर्म में धर्मान्तरित करने का कुत्सित प्रयास किए गए हैं।
NGOs के नाम पर फ़र्जीवाड़े का यह ट्रेण्ड समूचे भारत में फ़ैला हुआ है, यदि बिहार की बात करें तो वहाँ पर गत वर्ष तक पंजीकृत 22,272 गैर-लाभकारी संस्थाओं (NPIs) में से 18578 NPI (अर्थात NGO) के डाक-पते या तो फ़र्जी पाए गए, अथवा इनमें से अधिकांश निष्क्रिय थीं। इनकी सक्रियता सिर्फ़ उसी समय दिखाई देती थी, जब सरकार से कोई अनुदान लेना हो, अथवा एड्स, सड़क दुर्घटना जैसे किसी सामाजिक कार्यों के लिए विदेशी संस्था से चन्दा लेना हो। बिहार सरकार की जाँच में पाया गया कि इन में से सिर्फ़ 3694 संस्थाओं के पास रोज़गार एवं आर्थिक लेन-देन के वैध कागज़ात मौजूद थे। अपने बयान में योजना विकास मंत्री नरेन्द्र नारायण यादव ने कहा कि इस जाँच से हमें बिहार में चल रही NGOs की गतिविधियों को गहराई से समझने का मौका मिला है।
गौरतलब है कि 2001 से 2010 के बीच सिर्फ़ 9 वर्षों में चर्च और चर्च से जुड़ी NGO संस्थाओं को 70,000 करोड़ रुपए की विदेशी मदद प्राप्त हुई है। सरकारी आँकड़ों के अनुसर सिर्फ़ 2009-10 में ही इन संस्थाओं को 10,338 करोड़ रुपए मिले हैं। गृह मंत्रालय द्वारा प्रस्तुत 42 पृष्ठ के एक विश्लेषण के अनुसार देश में सबसे अधिक 1815 करोड़ रुपए दिल्ली स्थित NGO संस्थाओं को प्राप्त हुए हैं (देश की राजधानी है तो समझा जा सकता है), लेकिन तमिलनाडु को 1663 करोड़, आंध्रप्रदेश को 1324 करोड़ भी मिले हैं, जहाँ चर्च बेहद शक्तिशाली है। यदि संस्था के हिसाब से देखें तो विदेशों से सबसे अधिक चन्दा “World Vision of India” के चैन्नई स्थित शाखा (वर्ल्ड विजन) नामक NGO को मिला है। उल्लेखनीय है कि World Vision समूचे विश्व की सबसे बड़ी “समाजसेवी”(?) संस्था कही जाती है, जबकि वास्तव में इसका उद्देश्य “धर्मान्तरण” करना और आपदाओं के समय अनाथ हो चुके बच्चों को मदद के नाम पर ईसाई बनाना ही है।
ज़रा देखिए World Vision संस्था की वेबसाईट पर परिचय में क्या लिखते हैं – “वर्ल्ड विजन एक अंतरर्राष्ट्रीय सहयोग से चलने वाले ईसाईयों की संस्था है, जिसका उद्देश्य हमारे ईश्वर और उद्धारकर्ता जीसस के द्वारा गरीबों और वंचितों की मदद करने उन्हें मानवता के धर्म की ओर ले जाना है”। श्रीलंका में वर्ल्ड विजन की संदिग्ध गतिविधियों का भण्डाफ़ोड़ करते हुए वहाँ के लेफ़्टिनेंट कर्नल एएस अमरशेखरा लिखते हैं – “जॉर्ज बुश के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने अपने भाषण में कहा कि अब अमेरिका किसी भी विकासशील देश को मदद के नाम पर सीधे पैसा नहीं देगा, बल्कि अब इन देशों को अमेरिकी मदद से चलने वाली ईसाई NGO संस्थाओं के द्वारा ही पैसा भेजा जाएगा, World Vision ऐसी ही एक भीमकाय NGO है, जो कई देशों की सरकारों पर “अप्रत्यक्ष दबाव” बनाने में समर्थ है”। कर्नल अमरसेखरा के इस बयान को लिट्टे के सफ़ाए से जोड़कर देखने की आवश्यकता है, क्योंकि लिट्टे के मुखिया वी प्रभाकरण का नाम भले ही तमिलों जैसा लगता हो, वास्तव में वह एक ईसाई था, और ईसाई NGOs तथा वेटिकन से लिट्टे के सम्बन्धों के बारे में अब कई सरकारें जान चुकी हैं। यहाँ तक कि नॉर्वे, जो कि अक्सर लिट्टे और श्रीलंका के बीच मध्यस्थता करता था वह भी ईसाई संस्थाओं का गढ़ है…। स्वाभाविक है कि अधिकांश विकासशील देशों की संप्रभु सरकारें NGOs की इस बढ़ती ताकत से खौफ़ज़दा हैं।
एक और महाकाय NGO है, जिसका नाम है ASHA (आशा), जिससे जाने-माने समाजसेवी और मैगसेसे पुरस्कार विजेता संदीप पाण्डे जुड़े हुए हैं। यह संस्था ज़ाहिरा तौर पर कहती है कि यह अनाथ और गरीब बच्चों की शिक्षा, पोषण और उनकी कलात्मकता को बढ़ावा देने का काम करती है, लेकिन जब इसे मिलने वाले विदेशी चन्दे और सरकारी अनुदान के “सही उपयोग” के बारे में पूछताछ और जाँच की गई तो पता चला कि चन्दे में मिलने वाले लाखों रुपए के उपयोग का कोई संतोषजनक जवाब या बही-खाता उनके पास नहीं है। इस ASHA नामक NGO की वेबसाईट पर आर्थिक लाभ प्राप्त करने वालों में पाँच लोगों (संदीप, महेश, वल्लभाचार्य, आशा और सुधाकर) के नाम सामने आते हैं और “संयोग” से सभी का उपनाम “पाण्डे” है। बहरहाल… यहाँ सिर्फ़ एक उदाहरण पेश है - ASHA के बैनर तले काम करने वाली एक संस्था है “ईगाई सुनामी रिलीफ़ वर्क”। इस संस्था को सिर्फ़ दो गाँवों में बाँटने के लिए, सन् 2005 में सेंट लुईस अमेरिका, से लगभग 4000 डॉलर का अनुदान प्राप्त हुआ। जब इसके खर्च की जाँच निजी तौर पर कुछ पत्रकारों द्वारा की गई, तो शुरु में तो काफ़ी आनाकानी की गई, लेकिन जब पीछा नहीं छोड़ा गया तो संस्था द्वारा सुनामी पीड़ित बच्चों के लिए दी गई वस्तुओं की एक लिस्ट थमा दी गई, जिसमें – तीन साइकलें, पौष्टिक आटा, सत्तू, नारियल, ब्लाउज़ पीस, पेंसिल, पेंसिल बॉक्स, मोमबत्ती, कॉपियाँ, कुछ पुस्तकें, बल्ले और गेंद शामिल थे (इसमें साइकल, मोमबत्ती, कॉपियों, पेंसिल और पुस्तकों को छोड़कर, बाकी की वस्तुओं की संख्या लिखी हुई नहीं थी, और न ही इस बारे में कोई जवाब दिया गया)। 4000 डॉलर की रकम भारतीय रुपयों में लगभग दो लाख रुपए होते हैं, ऊपर दी गई लिस्ट का पूरा सामान यदि दो गाँवों के सभी बाशिंदों में भी बाँटा जाए तो भी यह अधिक से अधिक 50,000 या एक लाख रुपए में हो जाएगा, परन्तु बचे हुए तीन लाख रुपए कहाँ खर्च हुए, इसका कोई ब्यौरा नहीं दिया गया।
NGOs के इस रवैये की यह समस्या पूरे विश्व के सभी विकासशील देशों में व्याप्त है, जहाँ किसी भी विकासवादी गतिविधि (बाँध, परमाणु संयंत्र, बिजलीघर अथवा SEZ इत्यादि) के विरोध में NGOs को विरोध प्रदर्शनों तथा दुष्प्रचार के लिए भारी पैसा मिलता है, वहीं दूसरी ओर इन NGOs को भूकम्प, सुनामी, बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं के समय भी “मदद” और “मानवता” के नाम पर भारी अनुदान और चन्दा मिलता है… कुछ पैसा तो ये NGOs ईमानदारी से उसी काम के लिए खर्च करते है, लेकिन इसमें से काफ़ी सारा पैसा वे चुपके से धर्मान्तरण और अलगाववादी कृत्यों को बढ़ावा देने के कामों में भी लगा देते हैं।
पिछले कुछ वर्षों में मेधा पाटकर, संदीप पाण्डे, नर्मदा बाँध, कुडनकुलम और केजरीवाल जैसे आंदोलनों को देखकर भारत में केन्द्र और राज्य सरकारें सतर्क भी हुई हैं और उन्होंने उन देशों को इनकी रिपोर्ट देना शुरु कर दिया है, जहाँ से इनके चन्दे का पैसा आ रहा है। चन्दे के लिए विदेशों से आने वाले पैसे और दानदाताओं पर सरकार की टेढ़ी निगाह पड़नी शुरु हो गई है।
इसलिए अब यह कोई रहस्य की बात नहीं रह गई है कि, आखिर लगातार जनलोकपाल-जनलोकपाल का भजन गाने वाली अरविन्द केजरीवाल जैसों की NGOs गैंग, इन संस्थाओं को (यानी NGO को) लोकपाल की जाँच के दायरे से बाहर रखने पर क्यों अड़ी हुई थी। चर्च और पश्चिमी दानदाताओं द्वारा पोषित यह NGO संस्थाएं खुद को प्रधानमंत्री से भी ऊपर समझती हैं, क्योंकि ये प्रधानमंत्री को तो लोकपाल के दायरे में लाना चाहती हैं लेकिन खुद उस जाँच से बाहर रहना चाहती हैं… ऐसा क्या गड़बड़झाला है?
ज़रा सोचिए…
दुर्भाग्य से देश के प्रधानमंत्री दो पाटों के बीच फ़ँस चुके हैं, पहला पाटा है न्यूक्लियर रिएक्टर निर्माताओं की शक्तिशाली लॉबी, जबकि दूसरा पाट है देश के भीतर कार्यरत शक्तिशाली NGOs की लॉबी, जो कि दिल्ली के सत्ता गलियारों में मलाई चाटने के साथ-साथ आँखें दिखाने में भी व्यस्त है।
केन्द्र सरकार ने ऐसे 77 NGOs को जाँच और निगाहबीनी के दायरे में लिया है, जिन पर संदेह है कि ये भारत-विरोधी गतिविधियों में संलग्न हैं। भारत के गृह मंत्रालय ने पाया है कि इन NGOs की कुछ “सामाजिक आंदोलन” गतिविधियाँ भारत में अस्थिरता, वैमनस्य और अविश्वास फ़ैलाने वाली हैं। राजस्व निदेशालय के विभागीय जाँच ब्यूरो ने पाया है कि देश के हजारों NGOs को संदिग्ध स्रोतों से पैसा मिल रहा है, जिसे वे समाजसेवा के नाम पर धर्मान्तरण को बढ़ावा देने और माओवादी / आतंकवादी गतिविधियों में फ़ूँके जा रहे हैं। भारत में गत वर्ष तक 68,000 NGOs पंजीकृत थे। भारत के गृह सचिव भी चेता चुके हैं कि NGOs को जिस प्रकार से अरब देशों, यूरोप और स्कैण्डेनेवियाई देशों से भारी मात्रा में पैसा मिल रहा है, उसका हिसाब-किताब ठीक नहीं है, तथा जिस काम के लिए यह पैसा दिया गया है, या चन्दा पहुँचाया जा रहा है, वास्तव में जमीनी स्तर वह काम नहीं हो रहा। अर्थात यह पैसा “किसी और काम” की ओर मोड़ा जा रहा है।
जब 2008 में तमिलनाडु में कोडाईकनाल के जंगलों में माओवादी गतिविधियों में बढ़ोतरी देखी गई थी, तब इसमें एक साल पहले तीन माओवादी गिरफ़्तार हुए थे, जिनका नाम था विवेक, एलांगो और मणिवासगम, जो कि एक गुमनाम से NGO के लिए काम करते थे। इसे देखते हुए चेन्नै पुलिस ने चेन्नई के सभी NGOs के बैंक खातों और विदेशों से उन्हें मिलने वाले धन के बारे में जाँच आरम्भ कर दी है। चेन्नई पुलिस इस बात की भी जाँच कर रही है कि तमिलनाडु में आई हुई सुनामी के समय जिन तटवर्ती इलाकों के गरीबों की मदद के नाम पर तमाम NGOs को भारी मात्रा में पैसा मिला था, उसका क्या उपयोग किया गया? क्योंकि कई अखबारों की ऐसी रिपोर्ट है कि सुनामी पीड़ितों की मदद के नाम पर उन्हें ईसाई धर्म में धर्मान्तरित करने का कुत्सित प्रयास किए गए हैं।
NGOs के नाम पर फ़र्जीवाड़े का यह ट्रेण्ड समूचे भारत में फ़ैला हुआ है, यदि बिहार की बात करें तो वहाँ पर गत वर्ष तक पंजीकृत 22,272 गैर-लाभकारी संस्थाओं (NPIs) में से 18578 NPI (अर्थात NGO) के डाक-पते या तो फ़र्जी पाए गए, अथवा इनमें से अधिकांश निष्क्रिय थीं। इनकी सक्रियता सिर्फ़ उसी समय दिखाई देती थी, जब सरकार से कोई अनुदान लेना हो, अथवा एड्स, सड़क दुर्घटना जैसे किसी सामाजिक कार्यों के लिए विदेशी संस्था से चन्दा लेना हो। बिहार सरकार की जाँच में पाया गया कि इन में से सिर्फ़ 3694 संस्थाओं के पास रोज़गार एवं आर्थिक लेन-देन के वैध कागज़ात मौजूद थे। अपने बयान में योजना विकास मंत्री नरेन्द्र नारायण यादव ने कहा कि इस जाँच से हमें बिहार में चल रही NGOs की गतिविधियों को गहराई से समझने का मौका मिला है।
गौरतलब है कि 2001 से 2010 के बीच सिर्फ़ 9 वर्षों में चर्च और चर्च से जुड़ी NGO संस्थाओं को 70,000 करोड़ रुपए की विदेशी मदद प्राप्त हुई है। सरकारी आँकड़ों के अनुसर सिर्फ़ 2009-10 में ही इन संस्थाओं को 10,338 करोड़ रुपए मिले हैं। गृह मंत्रालय द्वारा प्रस्तुत 42 पृष्ठ के एक विश्लेषण के अनुसार देश में सबसे अधिक 1815 करोड़ रुपए दिल्ली स्थित NGO संस्थाओं को प्राप्त हुए हैं (देश की राजधानी है तो समझा जा सकता है), लेकिन तमिलनाडु को 1663 करोड़, आंध्रप्रदेश को 1324 करोड़ भी मिले हैं, जहाँ चर्च बेहद शक्तिशाली है। यदि संस्था के हिसाब से देखें तो विदेशों से सबसे अधिक चन्दा “World Vision of India” के चैन्नई स्थित शाखा (वर्ल्ड विजन) नामक NGO को मिला है। उल्लेखनीय है कि World Vision समूचे विश्व की सबसे बड़ी “समाजसेवी”(?) संस्था कही जाती है, जबकि वास्तव में इसका उद्देश्य “धर्मान्तरण” करना और आपदाओं के समय अनाथ हो चुके बच्चों को मदद के नाम पर ईसाई बनाना ही है।
ज़रा देखिए World Vision संस्था की वेबसाईट पर परिचय में क्या लिखते हैं – “वर्ल्ड विजन एक अंतरर्राष्ट्रीय सहयोग से चलने वाले ईसाईयों की संस्था है, जिसका उद्देश्य हमारे ईश्वर और उद्धारकर्ता जीसस के द्वारा गरीबों और वंचितों की मदद करने उन्हें मानवता के धर्म की ओर ले जाना है”। श्रीलंका में वर्ल्ड विजन की संदिग्ध गतिविधियों का भण्डाफ़ोड़ करते हुए वहाँ के लेफ़्टिनेंट कर्नल एएस अमरशेखरा लिखते हैं – “जॉर्ज बुश के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने अपने भाषण में कहा कि अब अमेरिका किसी भी विकासशील देश को मदद के नाम पर सीधे पैसा नहीं देगा, बल्कि अब इन देशों को अमेरिकी मदद से चलने वाली ईसाई NGO संस्थाओं के द्वारा ही पैसा भेजा जाएगा, World Vision ऐसी ही एक भीमकाय NGO है, जो कई देशों की सरकारों पर “अप्रत्यक्ष दबाव” बनाने में समर्थ है”। कर्नल अमरसेखरा के इस बयान को लिट्टे के सफ़ाए से जोड़कर देखने की आवश्यकता है, क्योंकि लिट्टे के मुखिया वी प्रभाकरण का नाम भले ही तमिलों जैसा लगता हो, वास्तव में वह एक ईसाई था, और ईसाई NGOs तथा वेटिकन से लिट्टे के सम्बन्धों के बारे में अब कई सरकारें जान चुकी हैं। यहाँ तक कि नॉर्वे, जो कि अक्सर लिट्टे और श्रीलंका के बीच मध्यस्थता करता था वह भी ईसाई संस्थाओं का गढ़ है…। स्वाभाविक है कि अधिकांश विकासशील देशों की संप्रभु सरकारें NGOs की इस बढ़ती ताकत से खौफ़ज़दा हैं।
एक और महाकाय NGO है, जिसका नाम है ASHA (आशा), जिससे जाने-माने समाजसेवी और मैगसेसे पुरस्कार विजेता संदीप पाण्डे जुड़े हुए हैं। यह संस्था ज़ाहिरा तौर पर कहती है कि यह अनाथ और गरीब बच्चों की शिक्षा, पोषण और उनकी कलात्मकता को बढ़ावा देने का काम करती है, लेकिन जब इसे मिलने वाले विदेशी चन्दे और सरकारी अनुदान के “सही उपयोग” के बारे में पूछताछ और जाँच की गई तो पता चला कि चन्दे में मिलने वाले लाखों रुपए के उपयोग का कोई संतोषजनक जवाब या बही-खाता उनके पास नहीं है। इस ASHA नामक NGO की वेबसाईट पर आर्थिक लाभ प्राप्त करने वालों में पाँच लोगों (संदीप, महेश, वल्लभाचार्य, आशा और सुधाकर) के नाम सामने आते हैं और “संयोग” से सभी का उपनाम “पाण्डे” है। बहरहाल… यहाँ सिर्फ़ एक उदाहरण पेश है - ASHA के बैनर तले काम करने वाली एक संस्था है “ईगाई सुनामी रिलीफ़ वर्क”। इस संस्था को सिर्फ़ दो गाँवों में बाँटने के लिए, सन् 2005 में सेंट लुईस अमेरिका, से लगभग 4000 डॉलर का अनुदान प्राप्त हुआ। जब इसके खर्च की जाँच निजी तौर पर कुछ पत्रकारों द्वारा की गई, तो शुरु में तो काफ़ी आनाकानी की गई, लेकिन जब पीछा नहीं छोड़ा गया तो संस्था द्वारा सुनामी पीड़ित बच्चों के लिए दी गई वस्तुओं की एक लिस्ट थमा दी गई, जिसमें – तीन साइकलें, पौष्टिक आटा, सत्तू, नारियल, ब्लाउज़ पीस, पेंसिल, पेंसिल बॉक्स, मोमबत्ती, कॉपियाँ, कुछ पुस्तकें, बल्ले और गेंद शामिल थे (इसमें साइकल, मोमबत्ती, कॉपियों, पेंसिल और पुस्तकों को छोड़कर, बाकी की वस्तुओं की संख्या लिखी हुई नहीं थी, और न ही इस बारे में कोई जवाब दिया गया)। 4000 डॉलर की रकम भारतीय रुपयों में लगभग दो लाख रुपए होते हैं, ऊपर दी गई लिस्ट का पूरा सामान यदि दो गाँवों के सभी बाशिंदों में भी बाँटा जाए तो भी यह अधिक से अधिक 50,000 या एक लाख रुपए में हो जाएगा, परन्तु बचे हुए तीन लाख रुपए कहाँ खर्च हुए, इसका कोई ब्यौरा नहीं दिया गया।
NGOs के इस रवैये की यह समस्या पूरे विश्व के सभी विकासशील देशों में व्याप्त है, जहाँ किसी भी विकासवादी गतिविधि (बाँध, परमाणु संयंत्र, बिजलीघर अथवा SEZ इत्यादि) के विरोध में NGOs को विरोध प्रदर्शनों तथा दुष्प्रचार के लिए भारी पैसा मिलता है, वहीं दूसरी ओर इन NGOs को भूकम्प, सुनामी, बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं के समय भी “मदद” और “मानवता” के नाम पर भारी अनुदान और चन्दा मिलता है… कुछ पैसा तो ये NGOs ईमानदारी से उसी काम के लिए खर्च करते है, लेकिन इसमें से काफ़ी सारा पैसा वे चुपके से धर्मान्तरण और अलगाववादी कृत्यों को बढ़ावा देने के कामों में भी लगा देते हैं।
पिछले कुछ वर्षों में मेधा पाटकर, संदीप पाण्डे, नर्मदा बाँध, कुडनकुलम और केजरीवाल जैसे आंदोलनों को देखकर भारत में केन्द्र और राज्य सरकारें सतर्क भी हुई हैं और उन्होंने उन देशों को इनकी रिपोर्ट देना शुरु कर दिया है, जहाँ से इनके चन्दे का पैसा आ रहा है। चन्दे के लिए विदेशों से आने वाले पैसे और दानदाताओं पर सरकार की टेढ़ी निगाह पड़नी शुरु हो गई है।
इसलिए अब यह कोई रहस्य की बात नहीं रह गई है कि, आखिर लगातार जनलोकपाल-जनलोकपाल का भजन गाने वाली अरविन्द केजरीवाल जैसों की NGOs गैंग, इन संस्थाओं को (यानी NGO को) लोकपाल की जाँच के दायरे से बाहर रखने पर क्यों अड़ी हुई थी। चर्च और पश्चिमी दानदाताओं द्वारा पोषित यह NGO संस्थाएं खुद को प्रधानमंत्री से भी ऊपर समझती हैं, क्योंकि ये प्रधानमंत्री को तो लोकपाल के दायरे में लाना चाहती हैं लेकिन खुद उस जाँच से बाहर रहना चाहती हैं… ऐसा क्या गड़बड़झाला है?
ज़रा सोचिए…
Source: http://hindi.ibtl.in/column/1044/ngos-and-church-activities-in-india-a-threat
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