बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जो बदलते नहीं हैं, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो कभी सुधरते नहीं हैं. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यादों से जुड़ी वस्तुओं की फिर से नीलामी हुई. फिर से भारत की ऐतिहासिक धरोहरों पर बोली लगी, लेकिन भारत की सरकार फिर से सोती रह गई. यह नहीं सुधरी. हालांकि फिर से एक भारतीय ने भारत की लाज बचाई. एक बार फिर उसी भारतीय ने महात्मा गांधी की यादों से जुड़ी वस्तुएं खरीदीं और पिछली बार की तरह इस बार भी अपना नाम मीडिया से छुपा लिया. अजीब इत्तेफाक है, सरकार सुधरती नहीं है और कमल मोरारका का अंदाज बदलता नहीं है.
इस नीलामी के दौरान गांधी के खून का सैंपल भी नीलाम हो गया. बापू का यह ब्लड सैंपल 1924 का है. उस वक्त उनके अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ था. ऑपरेशन के बाद वह मुंबई में रुककर स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे. बताया जाता है कि उन्होंने यह ब्लड सैंपल उस परिवार को दिया था, जिसके घर में वह मुंबई में रुके थे. नीलामी करने वाली एजेंसी ने इसकी क़ीमत 10000 पाउंड रखी थी, लेकिन किसी ने इससे बढ़कर बोली नहीं लगाई.
लंदन में एक बार फिर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यादों की नीलामी हुई और देश का दुर्भाग्य देखिए, भारत सरकार सोती रह गई. एक बार फिर से उसी भारतीय ने देश की लाज बचाई, जिसने पिछली बार गांधी की यादों को विदेशी हाथों में जाने से रोका था और गांधी के खून से सनी मिट्टी भारत लेकर आया था. तारीफ इस बात की होनी चाहिए कि यह शख्स इसे कोई मीडिया में प्रचार का जरिया नहीं बनाता और अपना नाम गुप्त रखता है. वैसे, पहले भी कुछ भारतीयों ने ऐतिहासिक धरोहरें नीलामी में खरीदीं, लेकिन उन्होंने उनका इतना प्रचार किया कि ऐतिहासिक धरोहर को जैसे बेचने की वस्तु में तब्दील कर दिया हो.
सबसे पहले आपको राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यादों से जुड़ी नीलामी के बारे में बताते हैं. यह नीलामी ब्रिटेन के एक बड़े ऑक्शन हाउस मुलॉक्स ने 21 मई, 2013 को की. इसमें बापू की रामायण, चमड़े की चप्पल, लालटेन, माला, काठ की प्रतिमा, पेंटिंग, टोपी, तार, ऑडियो टेप आदि कई चीजों पर बोलियां लगाई गईं. इस नीलामी की जानकारी भारत सरकार को भी थी, लेकिन इस नीलामी में भारत सरकार की तरफ़ से न तो कोई बोली लगाने वाला था और न ही उसकी ओर से बापू से जुड़ी इन यादों को अपने देश में वापस लाने के लिए कोई कोशिश की गई. अफ़सोस इस बात का है कि गांधी की यादों की नीलामी का यह कोई पहला मौका नहीं था, क्योंकि पहले भी सरकार की किरकिरी हो चुकी है. टीवी एवं अख़बारों के जरिए सरकार से गुजारिश की गई कि देश की प्रतिष्ठा को नीलाम होने से रोका जाए. लेकिन कहते हैं कि सोते हुए को तो जगाया जा सकता है, लेकिन जागते हुए को भला कौन जगा सकता है. मतलब यह कि कांग्रेस की सरकार ने अपनी करतूतों से साबित कर दिया है कि उसे न तो महात्मा गांधी की यादों से कोई लगाव है और न ही देश की प्रतिष्ठा की फिक्र है.
जब सरकार को देश की प्रतिष्ठा का ख्याल नहीं रहता है, तो यह ज़िम्मेदारी देश के नागरिकों की हो जाती है. यही काम कमल मोरारका ने किया. जब यह ख़बर आई कि 21 मई, 2013 को बापू से जुड़ी क़रीब 16 वस्तुओं की नीलामी होने जा रही है, तो उन्होंने सरकार की प्रतिक्रिया का इंतज़ार किया. लेकिन जो गलती सरकार ने पिछली बार की थी, वही गलती उसने फिर से दोहरा दी. सरकार की ओर से कोई बयान तक नहीं आया. ऐसे में फिर से कमल मोरारका ने बापू की धरोहर देश में वापस लाने की ठानी और इन 16 वस्तुओं को नीलामी में खरीद लिया. कमल मोरारका की यह पहल पहली नहीं है.
पिछले साल भी कमल मोरारका बापू से जुड़ी यादों को देश में वापस ले आए थे. लंदन के विख्यात ऑक्शन हाउस मुलॉक्स (जो कि स्मृति चिन्हों की नीलामी के लिए मशहूर है) ने 17 अप्रैल, 2012 को महात्मा गांधी से जुड़ी 29 वस्तुओं की नीलामी की थी, जिनमें मुख्य रूप से गांधी जी के खून से सनी घास एवं मिट्टी, ब्रिटेन में वकालत की पढ़ाई करते समय इस्तेमाल किया जाने वाला चश्मा, उनका चरखा, उनके लिखे कुछ पत्र और उनसे जुड़ी ख़बरों के प्रकाशन वाले अख़बारों की वास्तविक प्रतियां शामिल थीं. इन सभी वस्तुओं को कमल मोरारका ने खरीद कर देश की धरोहर देश में लाने और गांधी की यादों को बचाने का काम किया. इसके बाद उन्होंने यह घोषणा की थी कि इन्हें वह अपने व्यक्तिगत इस्तेमाल के लिए नहीं रखेंगे, बल्कि ये देश की धरोहर होंगी. पिछली बार जब बापू की निशानियों को भारत लाया गया, तो कमल मोरारका ने उन्हें अन्ना हज़ारे के सुपुर्द कर दिया. पटना में जब अन्ना हज़ारे ने जनतंत्र रैली की, तो उन्हें पहली बार लोगों के सामने रखा गया. गांधी देश की धरोहर हैं. उनके विचार बहुमूल्य हैं. गांधी के नाम से योजनाएं चला देने भर से राष्ट्रपिता के प्रति सरकार का दायित्व ख़त्म नहीं हो जाता है! असल में गांधी के विचारों को जन-जन तक पहुंचाना सरकार का ही दायित्व है. सरकार को जो करना चाहिए, वह तो करती नहीं, लेकिन उसके अलावा, वह सारा काम करती है. जो काम सरकार को करना चाहिए, वह काम कमल मोरारका कर रहे हैं. इस बार फिर से उन्होंने बापू की धरोहर देश में लाकर यह साबित किया कि गांधी को भले ही इस देश के राजनीतिक दल भुला दें, लेकिन एक भारतीय के दिल में गांधी हमेशा से थे और आगे भी रहेंगे.
देश की जनता तो कमल मोरारका के जज्बे को सलाम करती है, लेकिन सरकार ने क्या किया? एक बार अगर नीलामी होती, तो यह कहा भी जा सकता था कि सरकार से गलती हो गई, लेकिन यहां तो हर साल नीलामी हो रही है और सरकार मूकदर्शक बनी बैठी है. क्या भारत सरकार इतनी असहाय एवं कमजोर है या फिर सरकार चलाने वाले लोगों ने गांधी को भुला देने की कसम खा ली है? सवाल तो यह भी उठता है कि क्या अमेरिका के किसी नेता की यादों की नीलामी हुई है या फिर ब्रिटेन की रानी या राजा की यादों पर बोली लगाई जा सकती है? नहीं, क्योंकि या तो नीलामी रोक दी जाती है या फिर वहां की सरकार सारी यादों को खरीद लेती है, लेकिन भारत सरकार अजीब है. कुछ-कुछ समय के अंतराल में यह ख़बर आ जाती है कि गांधी की यादों की नीलामी हो रही है. सरकार को लोगों की भावनाओं की भी कद्र नहीं रही. क्या उसे पता नहीं है कि महात्मा गांधी की यादों की नीलामी होते देखकर किसी भी हिंदुस्तानी का खून खौल उठता है? दरअसल, नीलामी कराने वाली कंपनियों ने गांधी की यादों को एक कमोडिटी बना दिया है. क्या भारत सरकार उन्हें रोकने में असमर्थ है या फिर उसे गांधी की फिक्र ही नहीं रही? वैसे, दोनों ही अवस्थाएं निंदनीय हैं. गांधी की यादें एक के बाद, एक करके नीलाम हो रही हैं, पर सरकार ने हाथ खड़े कर दिए हैं. सवाल यह है कि क्या गांधी की यादों की नीलामी रुक पाएगी? नहीं. ऐसा इसलिए, क्योंकि जिन लोगों ने पहले या हाल में गांधी की यादों को खरीदा है, वे उन सामानों को फिर से बेच देंगे और फिर से उन्हीं सामानों की नीलामी होगी, मुनाफा कमाया जाएगा. यह सिलसिला शायद कभी नहीं रुकने वाला है.
पिछली बार जब नीलामी हुई, तब अख़बारों में यह ख़बर छपी कि सोनिया गांधी मनमोहन सिंह से इस बात से बहुत नाराज़ हैं कि इन चीज़ों की नीलामी रोकने और अपने देश में वापस लाने के लिए उन्होंने कोई क़दम नहीं उठाया. लगता है कि कांग्रेस पार्टी की यह आदत हो गई है या फिर यह एक रणनीति है कि सरकार की हर गलती के बाद मीडिया के जरिए यह ख़बर फैला देना कि सोनिया जी नाराज हैं या राहुल जी दु:खी हैं. देश की जनता अब मीडिया के जरिए फैलाई जाने वाली ऐसी ख़बरों पर भरोसा नहीं करती, क्योंकि लोग जानते हैं कि अगर कांग्रेस पार्टी को गांधी का जरा भी ख्याल होता, तो सोनिया गांधी मनमोहन सिंह को निर्देश देतीं और इस तरह लगातार हो रही गांधी की यादों की नीलामी रोकी जा सकती थी. दुर्भाग्य तो यह है कि ऐसे मामलों में देश का विपक्ष भी खामोश रहता है. दरअसल, देश के राजनीतिक दलों ने सत्ता हासिल करने की दौड़ में फंसकर सारे वैचारिक एवं राजनीतिक मापदंडों को तिलांजलि दे दी है. उन्होंने न स़िर्फ गांधी को भुला दिया, बल्कि उनके विचारों को भी ताख पर रख दिया है. यही वजह है, राजनीति में झूठ और हिंसा का बोलबाला है. ऐसे माहौल में बापू के बारे में सोचने का वक्त भी किसी के पास नहीं है और यही देश का दुर्भाग्य भी है. लेकिन जहां निराशा होती है, वहीं आशा के कमल भी खिलते हैं. कमल मोरारका जैसे व्यक्तित्व का देश में होना हर भारतीय के लिए गर्व की बात है. पिछली बार जब उन्होंने बापू की यादों को खरीदा था, तो यह सुनकर कि उक्त सभी चीज़ें किसी भारतीय ने खरीदी हैं, हर किसी का सीना चौड़ा और सिर गर्व से ऊंचा हो गया था. कमल मोरारका देश के जाने-माने पूंजीपति हैं, लेकिन पूंजीपति से ज़्यादा वह एक देशभक्त और अच्छे इंसान हैं. देश के बड़े पैसे वालों को कमल मोरारका से यह सीखना चाहिए कि देश के प्रति पागलपन की हद तक लगाव कैसे रखा जाता है और देश की आन-बान-शान को कैसे जिया जाता है.
अफ़सोस इस बात का है कि इस नीलामी के दौरान गांधी के खून का सैंपल भी नीलाम हो गया. बापू का यह ब्लड सैंपल 1924 का है. उस वक्त उनके अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ था. ऑपरेशन के बाद वह मुंबई में रुककर स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे. बताया जाता है कि उन्होंने यह ब्लड सैंपल उस परिवार को दिया था, जिसके घर में वह मुंबई में रुके थे. नीलामी करने वाली एजेंसी ने इसकी क़ीमत 10000 पाउंड रखी थी, लेकिन किसी ने इससे बढ़कर बोली नहीं लगाई, इसलिए यह ब्लड सैंपल 7000 पाउंड में नीलाम हुआ. इसे किसने लिया, यानी ब्लड सैंपल किसके पास है, यह सार्वजनिक नहीं किया गया है. अब सवाल है कि अगर यह ब्लड सैंपल किसी क्लोनिंग लेबोरेटरी के हाथ लग जाए और वह गांधी जी की क्लोनिंग शुरू कर दे, तो क्या होगा? अब यह तो कोई साइंटिस्ट ही बता सकता है कि इस ब्लड सैंपल से डीएनए निकाल कर क्या-क्या किया जा सकता है, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इसका गलत इस्तेमाल भी किया जा सकता है. सरकार को तुरंत इस बात का पता लगाना चाहिए कि यह ब्लड सैंपल किसके पास है, क्योंकि इसके किसी भी गलत इस्तेमाल पर रोक लगाने की ज़रूरत है.
भारत सरकार अजीब है. यह योजनाएं तो गांधी के नाम पर बनाती है, लेकिन उनसे जुड़ी यादों को नीलाम होने देती है. संवेदनहीनता का आलम यह है कि हर नीलामी की जानकारी भी सरकार को होती है. हर बार मीडिया में हंगामा मचता है और गांधी के वंशज भी आवाज़ उठाते रहते हैं, लेकिन सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगती. पिछली बार जब गांधी की वस्तुओं की नीलामी हुई थी, तब देश के गांधीवादी संगठन बिलबिला उठा थे और उन्होंने काफी विरोध किया था. प्रधानमंत्री कार्यालय से अपील की गई, अख़बारों में इस पर कई लेख प्रकाशित हुए और टीवी पर बहस भी हुई, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. सरकार कुंभकर्ण की भांति सोती रही और नीलामी का इतना प्रचार हो गया कि गांधी की यादों की क़ीमतें और भी बढ़ गईं. अगर सरकार को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रति कोई श्रद्धा है, तो उसे कुछ कड़े क़दम उठाने पड़ेंगे. इन नीलामियों को रोकने का एक तरीका ढूंढना ही होगा. संसद में फौरन एक क़ानून पास करके यह घोषणा करनी चाहिए कि गांधी की यादों से जुड़ी सारी वस्तुएं राष्ट्रीय संपत्ति हैं. वैसे भी, भारत की ऐतिहासिक विरासत पर पहला हक भारतीयों का है, इसलिए उन्हें सरकार के पास होना ही चाहिए, देश के संग्रहालयों में भी होना चाहिए. उन्हें विदेशी एवं निजी हाथों में जाने से रोकने के उपाय सरकार को करने चाहिए, वरना हम पूरी दुनिया में हंसी के पात्र बन जाएंगे, क्योंकि हर खरीदार कमल मोरारका नहीं होता!
Source: बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जो बदलते नहीं हैं, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो कभी सुधरते नहीं हैं. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यादों से जुड़ी वस्तुओं की फिर से नीलामी हुई. फिर से भारत की ऐतिहासिक धरोहरों पर बोली लगी, लेकिन भारत की सरकार फिर से सोती रह गई. यह नहीं सुधरी. हालांकि फिर से एक भारतीय ने भारत की लाज बचाई. एक बार फिर उसी भारतीय ने महात्मा गांधी की यादों से जुड़ी वस्तुएं खरीदीं और पिछली बार की तरह इस बार भी अपना नाम मीडिया से छुपा लिया. अजीब इत्तेफाक है, सरकार सुधरती नहीं है और कमल मोरारका का अंदाज बदलता नहीं है.
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इस नीलामी के दौरान गांधी के खून का सैंपल भी नीलाम हो गया. बापू का यह ब्लड सैंपल 1924 का है. उस वक्त उनके अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ था. ऑपरेशन के बाद वह मुंबई में रुककर स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे. बताया जाता है कि उन्होंने यह ब्लड सैंपल उस परिवार को दिया था, जिसके घर में वह मुंबई में रुके थे. नीलामी करने वाली एजेंसी ने इसकी क़ीमत 10000 पाउंड रखी थी, लेकिन किसी ने इससे बढ़कर बोली नहीं लगाई.
लंदन में एक बार फिर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यादों की नीलामी हुई और देश का दुर्भाग्य देखिए, भारत सरकार सोती रह गई. एक बार फिर से उसी भारतीय ने देश की लाज बचाई, जिसने पिछली बार गांधी की यादों को विदेशी हाथों में जाने से रोका था और गांधी के खून से सनी मिट्टी भारत लेकर आया था. तारीफ इस बात की होनी चाहिए कि यह शख्स इसे कोई मीडिया में प्रचार का जरिया नहीं बनाता और अपना नाम गुप्त रखता है. वैसे, पहले भी कुछ भारतीयों ने ऐतिहासिक धरोहरें नीलामी में खरीदीं, लेकिन उन्होंने उनका इतना प्रचार किया कि ऐतिहासिक धरोहर को जैसे बेचने की वस्तु में तब्दील कर दिया हो.
सबसे पहले आपको राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यादों से जुड़ी नीलामी के बारे में बताते हैं. यह नीलामी ब्रिटेन के एक बड़े ऑक्शन हाउस मुलॉक्स ने 21 मई, 2013 को की. इसमें बापू की रामायण, चमड़े की चप्पल, लालटेन, माला, काठ की प्रतिमा, पेंटिंग, टोपी, तार, ऑडियो टेप आदि कई चीजों पर बोलियां लगाई गईं. इस नीलामी की जानकारी भारत सरकार को भी थी, लेकिन इस नीलामी में भारत सरकार की तरफ़ से न तो कोई बोली लगाने वाला था और न ही उसकी ओर से बापू से जुड़ी इन यादों को अपने देश में वापस लाने के लिए कोई कोशिश की गई. अफ़सोस इस बात का है कि गांधी की यादों की नीलामी का यह कोई पहला मौका नहीं था, क्योंकि पहले भी सरकार की किरकिरी हो चुकी है. टीवी एवं अख़बारों के जरिए सरकार से गुजारिश की गई कि देश की प्रतिष्ठा को नीलाम होने से रोका जाए. लेकिन कहते हैं कि सोते हुए को तो जगाया जा सकता है, लेकिन जागते हुए को भला कौन जगा सकता है. मतलब यह कि कांग्रेस की सरकार ने अपनी करतूतों से साबित कर दिया है कि उसे न तो महात्मा गांधी की यादों से कोई लगाव है और न ही देश की प्रतिष्ठा की फिक्र है.
जब सरकार को देश की प्रतिष्ठा का ख्याल नहीं रहता है, तो यह ज़िम्मेदारी देश के नागरिकों की हो जाती है. यही काम कमल मोरारका ने किया. जब यह ख़बर आई कि 21 मई, 2013 को बापू से जुड़ी क़रीब 16 वस्तुओं की नीलामी होने जा रही है, तो उन्होंने सरकार की प्रतिक्रिया का इंतज़ार किया. लेकिन जो गलती सरकार ने पिछली बार की थी, वही गलती उसने फिर से दोहरा दी. सरकार की ओर से कोई बयान तक नहीं आया. ऐसे में फिर से कमल मोरारका ने बापू की धरोहर देश में वापस लाने की ठानी और इन 16 वस्तुओं को नीलामी में खरीद लिया. कमल मोरारका की यह पहल पहली नहीं है.
पिछले साल भी कमल मोरारका बापू से जुड़ी यादों को देश में वापस ले आए थे. लंदन के विख्यात ऑक्शन हाउस मुलॉक्स (जो कि स्मृति चिन्हों की नीलामी के लिए मशहूर है) ने 17 अप्रैल, 2012 को महात्मा गांधी से जुड़ी 29 वस्तुओं की नीलामी की थी, जिनमें मुख्य रूप से गांधी जी के खून से सनी घास एवं मिट्टी, ब्रिटेन में वकालत की पढ़ाई करते समय इस्तेमाल किया जाने वाला चश्मा, उनका चरखा, उनके लिखे कुछ पत्र और उनसे जुड़ी ख़बरों के प्रकाशन वाले अख़बारों की वास्तविक प्रतियां शामिल थीं. इन सभी वस्तुओं को कमल मोरारका ने खरीद कर देश की धरोहर देश में लाने और गांधी की यादों को बचाने का काम किया. इसके बाद उन्होंने यह घोषणा की थी कि इन्हें वह अपने व्यक्तिगत इस्तेमाल के लिए नहीं रखेंगे, बल्कि ये देश की धरोहर होंगी. पिछली बार जब बापू की निशानियों को भारत लाया गया, तो कमल मोरारका ने उन्हें अन्ना हज़ारे के सुपुर्द कर दिया. पटना में जब अन्ना हज़ारे ने जनतंत्र रैली की, तो उन्हें पहली बार लोगों के सामने रखा गया. गांधी देश की धरोहर हैं. उनके विचार बहुमूल्य हैं. गांधी के नाम से योजनाएं चला देने भर से राष्ट्रपिता के प्रति सरकार का दायित्व ख़त्म नहीं हो जाता है! असल में गांधी के विचारों को जन-जन तक पहुंचाना सरकार का ही दायित्व है. सरकार को जो करना चाहिए, वह तो करती नहीं, लेकिन उसके अलावा, वह सारा काम करती है. जो काम सरकार को करना चाहिए, वह काम कमल मोरारका कर रहे हैं. इस बार फिर से उन्होंने बापू की धरोहर देश में लाकर यह साबित किया कि गांधी को भले ही इस देश के राजनीतिक दल भुला दें, लेकिन एक भारतीय के दिल में गांधी हमेशा से थे और आगे भी रहेंगे.
देश की जनता तो कमल मोरारका के जज्बे को सलाम करती है, लेकिन सरकार ने क्या किया? एक बार अगर नीलामी होती, तो यह कहा भी जा सकता था कि सरकार से गलती हो गई, लेकिन यहां तो हर साल नीलामी हो रही है और सरकार मूकदर्शक बनी बैठी है. क्या भारत सरकार इतनी असहाय एवं कमजोर है या फिर सरकार चलाने वाले लोगों ने गांधी को भुला देने की कसम खा ली है? सवाल तो यह भी उठता है कि क्या अमेरिका के किसी नेता की यादों की नीलामी हुई है या फिर ब्रिटेन की रानी या राजा की यादों पर बोली लगाई जा सकती है? नहीं, क्योंकि या तो नीलामी रोक दी जाती है या फिर वहां की सरकार सारी यादों को खरीद लेती है, लेकिन भारत सरकार अजीब है. कुछ-कुछ समय के अंतराल में यह ख़बर आ जाती है कि गांधी की यादों की नीलामी हो रही है. सरकार को लोगों की भावनाओं की भी कद्र नहीं रही. क्या उसे पता नहीं है कि महात्मा गांधी की यादों की नीलामी होते देखकर किसी भी हिंदुस्तानी का खून खौल उठता है? दरअसल, नीलामी कराने वाली कंपनियों ने गांधी की यादों को एक कमोडिटी बना दिया है. क्या भारत सरकार उन्हें रोकने में असमर्थ है या फिर उसे गांधी की फिक्र ही नहीं रही? वैसे, दोनों ही अवस्थाएं निंदनीय हैं. गांधी की यादें एक के बाद, एक करके नीलाम हो रही हैं, पर सरकार ने हाथ खड़े कर दिए हैं. सवाल यह है कि क्या गांधी की यादों की नीलामी रुक पाएगी? नहीं. ऐसा इसलिए, क्योंकि जिन लोगों ने पहले या हाल में गांधी की यादों को खरीदा है, वे उन सामानों को फिर से बेच देंगे और फिर से उन्हीं सामानों की नीलामी होगी, मुनाफा कमाया जाएगा. यह सिलसिला शायद कभी नहीं रुकने वाला है.
पिछली बार जब नीलामी हुई, तब अख़बारों में यह ख़बर छपी कि सोनिया गांधी मनमोहन सिंह से इस बात से बहुत नाराज़ हैं कि इन चीज़ों की नीलामी रोकने और अपने देश में वापस लाने के लिए उन्होंने कोई क़दम नहीं उठाया. लगता है कि कांग्रेस पार्टी की यह आदत हो गई है या फिर यह एक रणनीति है कि सरकार की हर गलती के बाद मीडिया के जरिए यह ख़बर फैला देना कि सोनिया जी नाराज हैं या राहुल जी दु:खी हैं. देश की जनता अब मीडिया के जरिए फैलाई जाने वाली ऐसी ख़बरों पर भरोसा नहीं करती, क्योंकि लोग जानते हैं कि अगर कांग्रेस पार्टी को गांधी का जरा भी ख्याल होता, तो सोनिया गांधी मनमोहन सिंह को निर्देश देतीं और इस तरह लगातार हो रही गांधी की यादों की नीलामी रोकी जा सकती थी. दुर्भाग्य तो यह है कि ऐसे मामलों में देश का विपक्ष भी खामोश रहता है. दरअसल, देश के राजनीतिक दलों ने सत्ता हासिल करने की दौड़ में फंसकर सारे वैचारिक एवं राजनीतिक मापदंडों को तिलांजलि दे दी है. उन्होंने न स़िर्फ गांधी को भुला दिया, बल्कि उनके विचारों को भी ताख पर रख दिया है. यही वजह है, राजनीति में झूठ और हिंसा का बोलबाला है. ऐसे माहौल में बापू के बारे में सोचने का वक्त भी किसी के पास नहीं है और यही देश का दुर्भाग्य भी है. लेकिन जहां निराशा होती है, वहीं आशा के कमल भी खिलते हैं. कमल मोरारका जैसे व्यक्तित्व का देश में होना हर भारतीय के लिए गर्व की बात है. पिछली बार जब उन्होंने बापू की यादों को खरीदा था, तो यह सुनकर कि उक्त सभी चीज़ें किसी भारतीय ने खरीदी हैं, हर किसी का सीना चौड़ा और सिर गर्व से ऊंचा हो गया था. कमल मोरारका देश के जाने-माने पूंजीपति हैं, लेकिन पूंजीपति से ज़्यादा वह एक देशभक्त और अच्छे इंसान हैं. देश के बड़े पैसे वालों को कमल मोरारका से यह सीखना चाहिए कि देश के प्रति पागलपन की हद तक लगाव कैसे रखा जाता है और देश की आन-बान-शान को कैसे जिया जाता है.
अफ़सोस इस बात का है कि इस नीलामी के दौरान गांधी के खून का सैंपल भी नीलाम हो गया. बापू का यह ब्लड सैंपल 1924 का है. उस वक्त उनके अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ था. ऑपरेशन के बाद वह मुंबई में रुककर स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे. बताया जाता है कि उन्होंने यह ब्लड सैंपल उस परिवार को दिया था, जिसके घर में वह मुंबई में रुके थे. नीलामी करने वाली एजेंसी ने इसकी क़ीमत 10000 पाउंड रखी थी, लेकिन किसी ने इससे बढ़कर बोली नहीं लगाई, इसलिए यह ब्लड सैंपल 7000 पाउंड में नीलाम हुआ. इसे किसने लिया, यानी ब्लड सैंपल किसके पास है, यह सार्वजनिक नहीं किया गया है. अब सवाल है कि अगर यह ब्लड सैंपल किसी क्लोनिंग लेबोरेटरी के हाथ लग जाए और वह गांधी जी की क्लोनिंग शुरू कर दे, तो क्या होगा? अब यह तो कोई साइंटिस्ट ही बता सकता है कि इस ब्लड सैंपल से डीएनए निकाल कर क्या-क्या किया जा सकता है, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इसका गलत इस्तेमाल भी किया जा सकता है. सरकार को तुरंत इस बात का पता लगाना चाहिए कि यह ब्लड सैंपल किसके पास है, क्योंकि इसके किसी भी गलत इस्तेमाल पर रोक लगाने की ज़रूरत है.
भारत सरकार अजीब है. यह योजनाएं तो गांधी के नाम पर बनाती है, लेकिन उनसे जुड़ी यादों को नीलाम होने देती है. संवेदनहीनता का आलम यह है कि हर नीलामी की जानकारी भी सरकार को होती है. हर बार मीडिया में हंगामा मचता है और गांधी के वंशज भी आवाज़ उठाते रहते हैं, लेकिन सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगती. पिछली बार जब गांधी की वस्तुओं की नीलामी हुई थी, तब देश के गांधीवादी संगठन बिलबिला उठा थे और उन्होंने काफी विरोध किया था. प्रधानमंत्री कार्यालय से अपील की गई, अख़बारों में इस पर कई लेख प्रकाशित हुए और टीवी पर बहस भी हुई, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. सरकार कुंभकर्ण की भांति सोती रही और नीलामी का इतना प्रचार हो गया कि गांधी की यादों की क़ीमतें और भी बढ़ गईं. अगर सरकार को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रति कोई श्रद्धा है, तो उसे कुछ कड़े क़दम उठाने पड़ेंगे. इन नीलामियों को रोकने का एक तरीका ढूंढना ही होगा. संसद में फौरन एक क़ानून पास करके यह घोषणा करनी चाहिए कि गांधी की यादों से जुड़ी सारी वस्तुएं राष्ट्रीय संपत्ति हैं. वैसे भी, भारत की ऐतिहासिक विरासत पर पहला हक भारतीयों का है, इसलिए उन्हें सरकार के पास होना ही चाहिए, देश के संग्रहालयों में भी होना चाहिए. उन्हें विदेशी एवं निजी हाथों में जाने से रोकने के उपाय सरकार को करने चाहिए, वरना हम पूरी दुनिया में हंसी के पात्र बन जाएंगे, क्योंकि हर खरीदार कमल मोरारका नहीं होता!
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इस नीलामी के दौरान गांधी के खून का सैंपल भी नीलाम हो गया. बापू का यह ब्लड सैंपल 1924 का है. उस वक्त उनके अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ था. ऑपरेशन के बाद वह मुंबई में रुककर स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे. बताया जाता है कि उन्होंने यह ब्लड सैंपल उस परिवार को दिया था, जिसके घर में वह मुंबई में रुके थे. नीलामी करने वाली एजेंसी ने इसकी क़ीमत 10000 पाउंड रखी थी, लेकिन किसी ने इससे बढ़कर बोली नहीं लगाई.
लंदन में एक बार फिर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यादों की नीलामी हुई और देश का दुर्भाग्य देखिए, भारत सरकार सोती रह गई. एक बार फिर से उसी भारतीय ने देश की लाज बचाई, जिसने पिछली बार गांधी की यादों को विदेशी हाथों में जाने से रोका था और गांधी के खून से सनी मिट्टी भारत लेकर आया था. तारीफ इस बात की होनी चाहिए कि यह शख्स इसे कोई मीडिया में प्रचार का जरिया नहीं बनाता और अपना नाम गुप्त रखता है. वैसे, पहले भी कुछ भारतीयों ने ऐतिहासिक धरोहरें नीलामी में खरीदीं, लेकिन उन्होंने उनका इतना प्रचार किया कि ऐतिहासिक धरोहर को जैसे बेचने की वस्तु में तब्दील कर दिया हो.
सबसे पहले आपको राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यादों से जुड़ी नीलामी के बारे में बताते हैं. यह नीलामी ब्रिटेन के एक बड़े ऑक्शन हाउस मुलॉक्स ने 21 मई, 2013 को की. इसमें बापू की रामायण, चमड़े की चप्पल, लालटेन, माला, काठ की प्रतिमा, पेंटिंग, टोपी, तार, ऑडियो टेप आदि कई चीजों पर बोलियां लगाई गईं. इस नीलामी की जानकारी भारत सरकार को भी थी, लेकिन इस नीलामी में भारत सरकार की तरफ़ से न तो कोई बोली लगाने वाला था और न ही उसकी ओर से बापू से जुड़ी इन यादों को अपने देश में वापस लाने के लिए कोई कोशिश की गई. अफ़सोस इस बात का है कि गांधी की यादों की नीलामी का यह कोई पहला मौका नहीं था, क्योंकि पहले भी सरकार की किरकिरी हो चुकी है. टीवी एवं अख़बारों के जरिए सरकार से गुजारिश की गई कि देश की प्रतिष्ठा को नीलाम होने से रोका जाए. लेकिन कहते हैं कि सोते हुए को तो जगाया जा सकता है, लेकिन जागते हुए को भला कौन जगा सकता है. मतलब यह कि कांग्रेस की सरकार ने अपनी करतूतों से साबित कर दिया है कि उसे न तो महात्मा गांधी की यादों से कोई लगाव है और न ही देश की प्रतिष्ठा की फिक्र है.
जब सरकार को देश की प्रतिष्ठा का ख्याल नहीं रहता है, तो यह ज़िम्मेदारी देश के नागरिकों की हो जाती है. यही काम कमल मोरारका ने किया. जब यह ख़बर आई कि 21 मई, 2013 को बापू से जुड़ी क़रीब 16 वस्तुओं की नीलामी होने जा रही है, तो उन्होंने सरकार की प्रतिक्रिया का इंतज़ार किया. लेकिन जो गलती सरकार ने पिछली बार की थी, वही गलती उसने फिर से दोहरा दी. सरकार की ओर से कोई बयान तक नहीं आया. ऐसे में फिर से कमल मोरारका ने बापू की धरोहर देश में वापस लाने की ठानी और इन 16 वस्तुओं को नीलामी में खरीद लिया. कमल मोरारका की यह पहल पहली नहीं है.
पिछले साल भी कमल मोरारका बापू से जुड़ी यादों को देश में वापस ले आए थे. लंदन के विख्यात ऑक्शन हाउस मुलॉक्स (जो कि स्मृति चिन्हों की नीलामी के लिए मशहूर है) ने 17 अप्रैल, 2012 को महात्मा गांधी से जुड़ी 29 वस्तुओं की नीलामी की थी, जिनमें मुख्य रूप से गांधी जी के खून से सनी घास एवं मिट्टी, ब्रिटेन में वकालत की पढ़ाई करते समय इस्तेमाल किया जाने वाला चश्मा, उनका चरखा, उनके लिखे कुछ पत्र और उनसे जुड़ी ख़बरों के प्रकाशन वाले अख़बारों की वास्तविक प्रतियां शामिल थीं. इन सभी वस्तुओं को कमल मोरारका ने खरीद कर देश की धरोहर देश में लाने और गांधी की यादों को बचाने का काम किया. इसके बाद उन्होंने यह घोषणा की थी कि इन्हें वह अपने व्यक्तिगत इस्तेमाल के लिए नहीं रखेंगे, बल्कि ये देश की धरोहर होंगी. पिछली बार जब बापू की निशानियों को भारत लाया गया, तो कमल मोरारका ने उन्हें अन्ना हज़ारे के सुपुर्द कर दिया. पटना में जब अन्ना हज़ारे ने जनतंत्र रैली की, तो उन्हें पहली बार लोगों के सामने रखा गया. गांधी देश की धरोहर हैं. उनके विचार बहुमूल्य हैं. गांधी के नाम से योजनाएं चला देने भर से राष्ट्रपिता के प्रति सरकार का दायित्व ख़त्म नहीं हो जाता है! असल में गांधी के विचारों को जन-जन तक पहुंचाना सरकार का ही दायित्व है. सरकार को जो करना चाहिए, वह तो करती नहीं, लेकिन उसके अलावा, वह सारा काम करती है. जो काम सरकार को करना चाहिए, वह काम कमल मोरारका कर रहे हैं. इस बार फिर से उन्होंने बापू की धरोहर देश में लाकर यह साबित किया कि गांधी को भले ही इस देश के राजनीतिक दल भुला दें, लेकिन एक भारतीय के दिल में गांधी हमेशा से थे और आगे भी रहेंगे.
देश की जनता तो कमल मोरारका के जज्बे को सलाम करती है, लेकिन सरकार ने क्या किया? एक बार अगर नीलामी होती, तो यह कहा भी जा सकता था कि सरकार से गलती हो गई, लेकिन यहां तो हर साल नीलामी हो रही है और सरकार मूकदर्शक बनी बैठी है. क्या भारत सरकार इतनी असहाय एवं कमजोर है या फिर सरकार चलाने वाले लोगों ने गांधी को भुला देने की कसम खा ली है? सवाल तो यह भी उठता है कि क्या अमेरिका के किसी नेता की यादों की नीलामी हुई है या फिर ब्रिटेन की रानी या राजा की यादों पर बोली लगाई जा सकती है? नहीं, क्योंकि या तो नीलामी रोक दी जाती है या फिर वहां की सरकार सारी यादों को खरीद लेती है, लेकिन भारत सरकार अजीब है. कुछ-कुछ समय के अंतराल में यह ख़बर आ जाती है कि गांधी की यादों की नीलामी हो रही है. सरकार को लोगों की भावनाओं की भी कद्र नहीं रही. क्या उसे पता नहीं है कि महात्मा गांधी की यादों की नीलामी होते देखकर किसी भी हिंदुस्तानी का खून खौल उठता है? दरअसल, नीलामी कराने वाली कंपनियों ने गांधी की यादों को एक कमोडिटी बना दिया है. क्या भारत सरकार उन्हें रोकने में असमर्थ है या फिर उसे गांधी की फिक्र ही नहीं रही? वैसे, दोनों ही अवस्थाएं निंदनीय हैं. गांधी की यादें एक के बाद, एक करके नीलाम हो रही हैं, पर सरकार ने हाथ खड़े कर दिए हैं. सवाल यह है कि क्या गांधी की यादों की नीलामी रुक पाएगी? नहीं. ऐसा इसलिए, क्योंकि जिन लोगों ने पहले या हाल में गांधी की यादों को खरीदा है, वे उन सामानों को फिर से बेच देंगे और फिर से उन्हीं सामानों की नीलामी होगी, मुनाफा कमाया जाएगा. यह सिलसिला शायद कभी नहीं रुकने वाला है.
पिछली बार जब नीलामी हुई, तब अख़बारों में यह ख़बर छपी कि सोनिया गांधी मनमोहन सिंह से इस बात से बहुत नाराज़ हैं कि इन चीज़ों की नीलामी रोकने और अपने देश में वापस लाने के लिए उन्होंने कोई क़दम नहीं उठाया. लगता है कि कांग्रेस पार्टी की यह आदत हो गई है या फिर यह एक रणनीति है कि सरकार की हर गलती के बाद मीडिया के जरिए यह ख़बर फैला देना कि सोनिया जी नाराज हैं या राहुल जी दु:खी हैं. देश की जनता अब मीडिया के जरिए फैलाई जाने वाली ऐसी ख़बरों पर भरोसा नहीं करती, क्योंकि लोग जानते हैं कि अगर कांग्रेस पार्टी को गांधी का जरा भी ख्याल होता, तो सोनिया गांधी मनमोहन सिंह को निर्देश देतीं और इस तरह लगातार हो रही गांधी की यादों की नीलामी रोकी जा सकती थी. दुर्भाग्य तो यह है कि ऐसे मामलों में देश का विपक्ष भी खामोश रहता है. दरअसल, देश के राजनीतिक दलों ने सत्ता हासिल करने की दौड़ में फंसकर सारे वैचारिक एवं राजनीतिक मापदंडों को तिलांजलि दे दी है. उन्होंने न स़िर्फ गांधी को भुला दिया, बल्कि उनके विचारों को भी ताख पर रख दिया है. यही वजह है, राजनीति में झूठ और हिंसा का बोलबाला है. ऐसे माहौल में बापू के बारे में सोचने का वक्त भी किसी के पास नहीं है और यही देश का दुर्भाग्य भी है. लेकिन जहां निराशा होती है, वहीं आशा के कमल भी खिलते हैं. कमल मोरारका जैसे व्यक्तित्व का देश में होना हर भारतीय के लिए गर्व की बात है. पिछली बार जब उन्होंने बापू की यादों को खरीदा था, तो यह सुनकर कि उक्त सभी चीज़ें किसी भारतीय ने खरीदी हैं, हर किसी का सीना चौड़ा और सिर गर्व से ऊंचा हो गया था. कमल मोरारका देश के जाने-माने पूंजीपति हैं, लेकिन पूंजीपति से ज़्यादा वह एक देशभक्त और अच्छे इंसान हैं. देश के बड़े पैसे वालों को कमल मोरारका से यह सीखना चाहिए कि देश के प्रति पागलपन की हद तक लगाव कैसे रखा जाता है और देश की आन-बान-शान को कैसे जिया जाता है.
अफ़सोस इस बात का है कि इस नीलामी के दौरान गांधी के खून का सैंपल भी नीलाम हो गया. बापू का यह ब्लड सैंपल 1924 का है. उस वक्त उनके अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ था. ऑपरेशन के बाद वह मुंबई में रुककर स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे. बताया जाता है कि उन्होंने यह ब्लड सैंपल उस परिवार को दिया था, जिसके घर में वह मुंबई में रुके थे. नीलामी करने वाली एजेंसी ने इसकी क़ीमत 10000 पाउंड रखी थी, लेकिन किसी ने इससे बढ़कर बोली नहीं लगाई, इसलिए यह ब्लड सैंपल 7000 पाउंड में नीलाम हुआ. इसे किसने लिया, यानी ब्लड सैंपल किसके पास है, यह सार्वजनिक नहीं किया गया है. अब सवाल है कि अगर यह ब्लड सैंपल किसी क्लोनिंग लेबोरेटरी के हाथ लग जाए और वह गांधी जी की क्लोनिंग शुरू कर दे, तो क्या होगा? अब यह तो कोई साइंटिस्ट ही बता सकता है कि इस ब्लड सैंपल से डीएनए निकाल कर क्या-क्या किया जा सकता है, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इसका गलत इस्तेमाल भी किया जा सकता है. सरकार को तुरंत इस बात का पता लगाना चाहिए कि यह ब्लड सैंपल किसके पास है, क्योंकि इसके किसी भी गलत इस्तेमाल पर रोक लगाने की ज़रूरत है.
भारत सरकार अजीब है. यह योजनाएं तो गांधी के नाम पर बनाती है, लेकिन उनसे जुड़ी यादों को नीलाम होने देती है. संवेदनहीनता का आलम यह है कि हर नीलामी की जानकारी भी सरकार को होती है. हर बार मीडिया में हंगामा मचता है और गांधी के वंशज भी आवाज़ उठाते रहते हैं, लेकिन सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगती. पिछली बार जब गांधी की वस्तुओं की नीलामी हुई थी, तब देश के गांधीवादी संगठन बिलबिला उठा थे और उन्होंने काफी विरोध किया था. प्रधानमंत्री कार्यालय से अपील की गई, अख़बारों में इस पर कई लेख प्रकाशित हुए और टीवी पर बहस भी हुई, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. सरकार कुंभकर्ण की भांति सोती रही और नीलामी का इतना प्रचार हो गया कि गांधी की यादों की क़ीमतें और भी बढ़ गईं. अगर सरकार को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रति कोई श्रद्धा है, तो उसे कुछ कड़े क़दम उठाने पड़ेंगे. इन नीलामियों को रोकने का एक तरीका ढूंढना ही होगा. संसद में फौरन एक क़ानून पास करके यह घोषणा करनी चाहिए कि गांधी की यादों से जुड़ी सारी वस्तुएं राष्ट्रीय संपत्ति हैं. वैसे भी, भारत की ऐतिहासिक विरासत पर पहला हक भारतीयों का है, इसलिए उन्हें सरकार के पास होना ही चाहिए, देश के संग्रहालयों में भी होना चाहिए. उन्हें विदेशी एवं निजी हाथों में जाने से रोकने के उपाय सरकार को करने चाहिए, वरना हम पूरी दुनिया में हंसी के पात्र बन जाएंगे, क्योंकि हर खरीदार कमल मोरारका नहीं होता!
Source: बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जो बदलते नहीं हैं, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो कभी सुधरते नहीं हैं. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यादों से जुड़ी वस्तुओं की फिर से नीलामी हुई. फिर से भारत की ऐतिहासिक धरोहरों पर बोली लगी, लेकिन भारत की सरकार फिर से सोती रह गई. यह नहीं सुधरी. हालांकि फिर से एक भारतीय ने भारत की लाज बचाई. एक बार फिर उसी भारतीय ने महात्मा गांधी की यादों से जुड़ी वस्तुएं खरीदीं और पिछली बार की तरह इस बार भी अपना नाम मीडिया से छुपा लिया. अजीब इत्तेफाक है, सरकार सुधरती नहीं है और कमल मोरारका का अंदाज बदलता नहीं है.
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इस नीलामी के दौरान गांधी के खून का सैंपल भी नीलाम हो गया. बापू का यह ब्लड सैंपल 1924 का है. उस वक्त उनके अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ था. ऑपरेशन के बाद वह मुंबई में रुककर स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे. बताया जाता है कि उन्होंने यह ब्लड सैंपल उस परिवार को दिया था, जिसके घर में वह मुंबई में रुके थे. नीलामी करने वाली एजेंसी ने इसकी क़ीमत 10000 पाउंड रखी थी, लेकिन किसी ने इससे बढ़कर बोली नहीं लगाई.
लंदन में एक बार फिर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यादों की नीलामी हुई और देश का दुर्भाग्य देखिए, भारत सरकार सोती रह गई. एक बार फिर से उसी भारतीय ने देश की लाज बचाई, जिसने पिछली बार गांधी की यादों को विदेशी हाथों में जाने से रोका था और गांधी के खून से सनी मिट्टी भारत लेकर आया था. तारीफ इस बात की होनी चाहिए कि यह शख्स इसे कोई मीडिया में प्रचार का जरिया नहीं बनाता और अपना नाम गुप्त रखता है. वैसे, पहले भी कुछ भारतीयों ने ऐतिहासिक धरोहरें नीलामी में खरीदीं, लेकिन उन्होंने उनका इतना प्रचार किया कि ऐतिहासिक धरोहर को जैसे बेचने की वस्तु में तब्दील कर दिया हो.
सबसे पहले आपको राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यादों से जुड़ी नीलामी के बारे में बताते हैं. यह नीलामी ब्रिटेन के एक बड़े ऑक्शन हाउस मुलॉक्स ने 21 मई, 2013 को की. इसमें बापू की रामायण, चमड़े की चप्पल, लालटेन, माला, काठ की प्रतिमा, पेंटिंग, टोपी, तार, ऑडियो टेप आदि कई चीजों पर बोलियां लगाई गईं. इस नीलामी की जानकारी भारत सरकार को भी थी, लेकिन इस नीलामी में भारत सरकार की तरफ़ से न तो कोई बोली लगाने वाला था और न ही उसकी ओर से बापू से जुड़ी इन यादों को अपने देश में वापस लाने के लिए कोई कोशिश की गई. अफ़सोस इस बात का है कि गांधी की यादों की नीलामी का यह कोई पहला मौका नहीं था, क्योंकि पहले भी सरकार की किरकिरी हो चुकी है. टीवी एवं अख़बारों के जरिए सरकार से गुजारिश की गई कि देश की प्रतिष्ठा को नीलाम होने से रोका जाए. लेकिन कहते हैं कि सोते हुए को तो जगाया जा सकता है, लेकिन जागते हुए को भला कौन जगा सकता है. मतलब यह कि कांग्रेस की सरकार ने अपनी करतूतों से साबित कर दिया है कि उसे न तो महात्मा गांधी की यादों से कोई लगाव है और न ही देश की प्रतिष्ठा की फिक्र है.
जब सरकार को देश की प्रतिष्ठा का ख्याल नहीं रहता है, तो यह ज़िम्मेदारी देश के नागरिकों की हो जाती है. यही काम कमल मोरारका ने किया. जब यह ख़बर आई कि 21 मई, 2013 को बापू से जुड़ी क़रीब 16 वस्तुओं की नीलामी होने जा रही है, तो उन्होंने सरकार की प्रतिक्रिया का इंतज़ार किया. लेकिन जो गलती सरकार ने पिछली बार की थी, वही गलती उसने फिर से दोहरा दी. सरकार की ओर से कोई बयान तक नहीं आया. ऐसे में फिर से कमल मोरारका ने बापू की धरोहर देश में वापस लाने की ठानी और इन 16 वस्तुओं को नीलामी में खरीद लिया. कमल मोरारका की यह पहल पहली नहीं है.
पिछले साल भी कमल मोरारका बापू से जुड़ी यादों को देश में वापस ले आए थे. लंदन के विख्यात ऑक्शन हाउस मुलॉक्स (जो कि स्मृति चिन्हों की नीलामी के लिए मशहूर है) ने 17 अप्रैल, 2012 को महात्मा गांधी से जुड़ी 29 वस्तुओं की नीलामी की थी, जिनमें मुख्य रूप से गांधी जी के खून से सनी घास एवं मिट्टी, ब्रिटेन में वकालत की पढ़ाई करते समय इस्तेमाल किया जाने वाला चश्मा, उनका चरखा, उनके लिखे कुछ पत्र और उनसे जुड़ी ख़बरों के प्रकाशन वाले अख़बारों की वास्तविक प्रतियां शामिल थीं. इन सभी वस्तुओं को कमल मोरारका ने खरीद कर देश की धरोहर देश में लाने और गांधी की यादों को बचाने का काम किया. इसके बाद उन्होंने यह घोषणा की थी कि इन्हें वह अपने व्यक्तिगत इस्तेमाल के लिए नहीं रखेंगे, बल्कि ये देश की धरोहर होंगी. पिछली बार जब बापू की निशानियों को भारत लाया गया, तो कमल मोरारका ने उन्हें अन्ना हज़ारे के सुपुर्द कर दिया. पटना में जब अन्ना हज़ारे ने जनतंत्र रैली की, तो उन्हें पहली बार लोगों के सामने रखा गया. गांधी देश की धरोहर हैं. उनके विचार बहुमूल्य हैं. गांधी के नाम से योजनाएं चला देने भर से राष्ट्रपिता के प्रति सरकार का दायित्व ख़त्म नहीं हो जाता है! असल में गांधी के विचारों को जन-जन तक पहुंचाना सरकार का ही दायित्व है. सरकार को जो करना चाहिए, वह तो करती नहीं, लेकिन उसके अलावा, वह सारा काम करती है. जो काम सरकार को करना चाहिए, वह काम कमल मोरारका कर रहे हैं. इस बार फिर से उन्होंने बापू की धरोहर देश में लाकर यह साबित किया कि गांधी को भले ही इस देश के राजनीतिक दल भुला दें, लेकिन एक भारतीय के दिल में गांधी हमेशा से थे और आगे भी रहेंगे.
देश की जनता तो कमल मोरारका के जज्बे को सलाम करती है, लेकिन सरकार ने क्या किया? एक बार अगर नीलामी होती, तो यह कहा भी जा सकता था कि सरकार से गलती हो गई, लेकिन यहां तो हर साल नीलामी हो रही है और सरकार मूकदर्शक बनी बैठी है. क्या भारत सरकार इतनी असहाय एवं कमजोर है या फिर सरकार चलाने वाले लोगों ने गांधी को भुला देने की कसम खा ली है? सवाल तो यह भी उठता है कि क्या अमेरिका के किसी नेता की यादों की नीलामी हुई है या फिर ब्रिटेन की रानी या राजा की यादों पर बोली लगाई जा सकती है? नहीं, क्योंकि या तो नीलामी रोक दी जाती है या फिर वहां की सरकार सारी यादों को खरीद लेती है, लेकिन भारत सरकार अजीब है. कुछ-कुछ समय के अंतराल में यह ख़बर आ जाती है कि गांधी की यादों की नीलामी हो रही है. सरकार को लोगों की भावनाओं की भी कद्र नहीं रही. क्या उसे पता नहीं है कि महात्मा गांधी की यादों की नीलामी होते देखकर किसी भी हिंदुस्तानी का खून खौल उठता है? दरअसल, नीलामी कराने वाली कंपनियों ने गांधी की यादों को एक कमोडिटी बना दिया है. क्या भारत सरकार उन्हें रोकने में असमर्थ है या फिर उसे गांधी की फिक्र ही नहीं रही? वैसे, दोनों ही अवस्थाएं निंदनीय हैं. गांधी की यादें एक के बाद, एक करके नीलाम हो रही हैं, पर सरकार ने हाथ खड़े कर दिए हैं. सवाल यह है कि क्या गांधी की यादों की नीलामी रुक पाएगी? नहीं. ऐसा इसलिए, क्योंकि जिन लोगों ने पहले या हाल में गांधी की यादों को खरीदा है, वे उन सामानों को फिर से बेच देंगे और फिर से उन्हीं सामानों की नीलामी होगी, मुनाफा कमाया जाएगा. यह सिलसिला शायद कभी नहीं रुकने वाला है.
पिछली बार जब नीलामी हुई, तब अख़बारों में यह ख़बर छपी कि सोनिया गांधी मनमोहन सिंह से इस बात से बहुत नाराज़ हैं कि इन चीज़ों की नीलामी रोकने और अपने देश में वापस लाने के लिए उन्होंने कोई क़दम नहीं उठाया. लगता है कि कांग्रेस पार्टी की यह आदत हो गई है या फिर यह एक रणनीति है कि सरकार की हर गलती के बाद मीडिया के जरिए यह ख़बर फैला देना कि सोनिया जी नाराज हैं या राहुल जी दु:खी हैं. देश की जनता अब मीडिया के जरिए फैलाई जाने वाली ऐसी ख़बरों पर भरोसा नहीं करती, क्योंकि लोग जानते हैं कि अगर कांग्रेस पार्टी को गांधी का जरा भी ख्याल होता, तो सोनिया गांधी मनमोहन सिंह को निर्देश देतीं और इस तरह लगातार हो रही गांधी की यादों की नीलामी रोकी जा सकती थी. दुर्भाग्य तो यह है कि ऐसे मामलों में देश का विपक्ष भी खामोश रहता है. दरअसल, देश के राजनीतिक दलों ने सत्ता हासिल करने की दौड़ में फंसकर सारे वैचारिक एवं राजनीतिक मापदंडों को तिलांजलि दे दी है. उन्होंने न स़िर्फ गांधी को भुला दिया, बल्कि उनके विचारों को भी ताख पर रख दिया है. यही वजह है, राजनीति में झूठ और हिंसा का बोलबाला है. ऐसे माहौल में बापू के बारे में सोचने का वक्त भी किसी के पास नहीं है और यही देश का दुर्भाग्य भी है. लेकिन जहां निराशा होती है, वहीं आशा के कमल भी खिलते हैं. कमल मोरारका जैसे व्यक्तित्व का देश में होना हर भारतीय के लिए गर्व की बात है. पिछली बार जब उन्होंने बापू की यादों को खरीदा था, तो यह सुनकर कि उक्त सभी चीज़ें किसी भारतीय ने खरीदी हैं, हर किसी का सीना चौड़ा और सिर गर्व से ऊंचा हो गया था. कमल मोरारका देश के जाने-माने पूंजीपति हैं, लेकिन पूंजीपति से ज़्यादा वह एक देशभक्त और अच्छे इंसान हैं. देश के बड़े पैसे वालों को कमल मोरारका से यह सीखना चाहिए कि देश के प्रति पागलपन की हद तक लगाव कैसे रखा जाता है और देश की आन-बान-शान को कैसे जिया जाता है.
अफ़सोस इस बात का है कि इस नीलामी के दौरान गांधी के खून का सैंपल भी नीलाम हो गया. बापू का यह ब्लड सैंपल 1924 का है. उस वक्त उनके अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ था. ऑपरेशन के बाद वह मुंबई में रुककर स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे. बताया जाता है कि उन्होंने यह ब्लड सैंपल उस परिवार को दिया था, जिसके घर में वह मुंबई में रुके थे. नीलामी करने वाली एजेंसी ने इसकी क़ीमत 10000 पाउंड रखी थी, लेकिन किसी ने इससे बढ़कर बोली नहीं लगाई, इसलिए यह ब्लड सैंपल 7000 पाउंड में नीलाम हुआ. इसे किसने लिया, यानी ब्लड सैंपल किसके पास है, यह सार्वजनिक नहीं किया गया है. अब सवाल है कि अगर यह ब्लड सैंपल किसी क्लोनिंग लेबोरेटरी के हाथ लग जाए और वह गांधी जी की क्लोनिंग शुरू कर दे, तो क्या होगा? अब यह तो कोई साइंटिस्ट ही बता सकता है कि इस ब्लड सैंपल से डीएनए निकाल कर क्या-क्या किया जा सकता है, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इसका गलत इस्तेमाल भी किया जा सकता है. सरकार को तुरंत इस बात का पता लगाना चाहिए कि यह ब्लड सैंपल किसके पास है, क्योंकि इसके किसी भी गलत इस्तेमाल पर रोक लगाने की ज़रूरत है.
भारत सरकार अजीब है. यह योजनाएं तो गांधी के नाम पर बनाती है, लेकिन उनसे जुड़ी यादों को नीलाम होने देती है. संवेदनहीनता का आलम यह है कि हर नीलामी की जानकारी भी सरकार को होती है. हर बार मीडिया में हंगामा मचता है और गांधी के वंशज भी आवाज़ उठाते रहते हैं, लेकिन सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगती. पिछली बार जब गांधी की वस्तुओं की नीलामी हुई थी, तब देश के गांधीवादी संगठन बिलबिला उठा थे और उन्होंने काफी विरोध किया था. प्रधानमंत्री कार्यालय से अपील की गई, अख़बारों में इस पर कई लेख प्रकाशित हुए और टीवी पर बहस भी हुई, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. सरकार कुंभकर्ण की भांति सोती रही और नीलामी का इतना प्रचार हो गया कि गांधी की यादों की क़ीमतें और भी बढ़ गईं. अगर सरकार को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रति कोई श्रद्धा है, तो उसे कुछ कड़े क़दम उठाने पड़ेंगे. इन नीलामियों को रोकने का एक तरीका ढूंढना ही होगा. संसद में फौरन एक क़ानून पास करके यह घोषणा करनी चाहिए कि गांधी की यादों से जुड़ी सारी वस्तुएं राष्ट्रीय संपत्ति हैं. वैसे भी, भारत की ऐतिहासिक विरासत पर पहला हक भारतीयों का है, इसलिए उन्हें सरकार के पास होना ही चाहिए, देश के संग्रहालयों में भी होना चाहिए. उन्हें विदेशी एवं निजी हाथों में जाने से रोकने के उपाय सरकार को करने चाहिए, वरना हम पूरी दुनिया में हंसी के पात्र बन जाएंगे, क्योंकि हर खरीदार कमल मोरारका नहीं होता!
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बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जो बदलते नहीं हैं, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो
कभी सुधरते नहीं हैं. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यादों से जुड़ी
वस्तुओं की फिर से नीलामी हुई. फिर से भारत की ऐतिहासिक धरोहरों पर बोली
लगी, लेकिन भारत की सरकार फिर से सोती रह गई. यह नहीं सुधरी.
हालांकि फिर से एक भारतीय ने भारत की लाज बचाई. एक बार फिर उसी भारतीय ने
महात्मा गांधी की यादों से जुड़ी वस्तुएं खरीदीं और पिछली बार की तरह इस
बार भी अपना नाम मीडिया से छुपा लिया. अजीब इत्तेफाक है, सरकार सुधरती नहीं है और कमल मोरारका का अंदाज बदलता नहीं है.
इस नीलामी के दौरान गांधी के खून का सैंपल भी नीलाम हो गया. बापू का यह ब्लड सैंपल 1924 का है. उस वक्त उनके अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ था. ऑपरेशन के बाद वह मुंबई में रुककर स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे. बताया जाता है कि उन्होंने यह ब्लड सैंपल उस परिवार को दिया था, जिसके घर में वह मुंबई में रुके थे. नीलामी करने वाली एजेंसी ने इसकी क़ीमत 10000 पाउंड रखी थी, लेकिन किसी ने इससे बढ़कर बोली नहीं लगाई.
लंदन में एक बार फिर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यादों की नीलामी हुई और देश का दुर्भाग्य देखिए, भारत सरकार सोती रह गई. एक बार फिर से उसी भारतीय ने देश की लाज बचाई, जिसने पिछली बार गांधी की यादों को विदेशी हाथों में जाने से रोका था और गांधी के खून से सनी मिट्टी भारत लेकर आया था. तारीफ इस बात की होनी चाहिए कि यह शख्स इसे कोई मीडिया में प्रचार का जरिया नहीं बनाता और अपना नाम गुप्त रखता है. वैसे, पहले भी कुछ भारतीयों ने ऐतिहासिक धरोहरें नीलामी में खरीदीं, लेकिन उन्होंने उनका इतना प्रचार किया कि ऐतिहासिक धरोहर को जैसे बेचने की वस्तु में तब्दील कर दिया हो.
सबसे पहले आपको राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यादों से जुड़ी नीलामी के बारे में बताते हैं. यह नीलामी ब्रिटेन के एक बड़े ऑक्शन हाउस मुलॉक्स ने 21 मई, 2013 को की. इसमें बापू की रामायण, चमड़े की चप्पल, लालटेन, माला, काठ की प्रतिमा, पेंटिंग, टोपी, तार, ऑडियो टेप आदि कई चीजों पर बोलियां लगाई गईं. इस नीलामी की जानकारी भारत सरकार को भी थी, लेकिन इस नीलामी में भारत सरकार की तरफ़ से न तो कोई बोली लगाने वाला था और न ही उसकी ओर से बापू से जुड़ी इन यादों को अपने देश में वापस लाने के लिए कोई कोशिश की गई. अफ़सोस इस बात का है कि गांधी की यादों की नीलामी का यह कोई पहला मौका नहीं था, क्योंकि पहले भी सरकार की किरकिरी हो चुकी है. टीवी एवं अख़बारों के जरिए सरकार से गुजारिश की गई कि देश की प्रतिष्ठा को नीलाम होने से रोका जाए. लेकिन कहते हैं कि सोते हुए को तो जगाया जा सकता है, लेकिन जागते हुए को भला कौन जगा सकता है. मतलब यह कि कांग्रेस की सरकार ने अपनी करतूतों से साबित कर दिया है कि उसे न तो महात्मा गांधी की यादों से कोई लगाव है और न ही देश की प्रतिष्ठा की फिक्र है.
जब सरकार को देश की प्रतिष्ठा का ख्याल नहीं रहता है, तो यह ज़िम्मेदारी देश के नागरिकों की हो जाती है. यही काम कमल मोरारका ने किया. जब यह ख़बर आई कि 21 मई, 2013 को बापू से जुड़ी क़रीब 16 वस्तुओं की नीलामी होने जा रही है, तो उन्होंने सरकार की प्रतिक्रिया का इंतज़ार किया. लेकिन जो गलती सरकार ने पिछली बार की थी, वही गलती उसने फिर से दोहरा दी. सरकार की ओर से कोई बयान तक नहीं आया. ऐसे में फिर से कमल मोरारका ने बापू की धरोहर देश में वापस लाने की ठानी और इन 16 वस्तुओं को नीलामी में खरीद लिया. कमल मोरारका की यह पहल पहली नहीं है.
पिछले साल भी कमल मोरारका बापू से जुड़ी यादों को देश में वापस ले आए थे. लंदन के विख्यात ऑक्शन हाउस मुलॉक्स (जो कि स्मृति चिन्हों की नीलामी के लिए मशहूर है) ने 17 अप्रैल, 2012 को महात्मा गांधी से जुड़ी 29 वस्तुओं की नीलामी की थी, जिनमें मुख्य रूप से गांधी जी के खून से सनी घास एवं मिट्टी, ब्रिटेन में वकालत की पढ़ाई करते समय इस्तेमाल किया जाने वाला चश्मा, उनका चरखा, उनके लिखे कुछ पत्र और उनसे जुड़ी ख़बरों के प्रकाशन वाले अख़बारों की वास्तविक प्रतियां शामिल थीं. इन सभी वस्तुओं को कमल मोरारका ने खरीद कर देश की धरोहर देश में लाने और गांधी की यादों को बचाने का काम किया. इसके बाद उन्होंने यह घोषणा की थी कि इन्हें वह अपने व्यक्तिगत इस्तेमाल के लिए नहीं रखेंगे, बल्कि ये देश की धरोहर होंगी. पिछली बार जब बापू की निशानियों को भारत लाया गया, तो कमल मोरारका ने उन्हें अन्ना हज़ारे के सुपुर्द कर दिया. पटना में जब अन्ना हज़ारे ने जनतंत्र रैली की, तो उन्हें पहली बार लोगों के सामने रखा गया. गांधी देश की धरोहर हैं. उनके विचार बहुमूल्य हैं. गांधी के नाम से योजनाएं चला देने भर से राष्ट्रपिता के प्रति सरकार का दायित्व ख़त्म नहीं हो जाता है! असल में गांधी के विचारों को जन-जन तक पहुंचाना सरकार का ही दायित्व है. सरकार को जो करना चाहिए, वह तो करती नहीं, लेकिन उसके अलावा, वह सारा काम करती है. जो काम सरकार को करना चाहिए, वह काम कमल मोरारका कर रहे हैं. इस बार फिर से उन्होंने बापू की धरोहर देश में लाकर यह साबित किया कि गांधी को भले ही इस देश के राजनीतिक दल भुला दें, लेकिन एक भारतीय के दिल में गांधी हमेशा से थे और आगे भी रहेंगे.
देश की जनता तो कमल मोरारका के जज्बे को सलाम करती है, लेकिन सरकार ने क्या किया? एक बार अगर नीलामी होती, तो यह कहा भी जा सकता था कि सरकार से गलती हो गई, लेकिन यहां तो हर साल नीलामी हो रही है और सरकार मूकदर्शक बनी बैठी है. क्या भारत सरकार इतनी असहाय एवं कमजोर है या फिर सरकार चलाने वाले लोगों ने गांधी को भुला देने की कसम खा ली है? सवाल तो यह भी उठता है कि क्या अमेरिका के किसी नेता की यादों की नीलामी हुई है या फिर ब्रिटेन की रानी या राजा की यादों पर बोली लगाई जा सकती है? नहीं, क्योंकि या तो नीलामी रोक दी जाती है या फिर वहां की सरकार सारी यादों को खरीद लेती है, लेकिन भारत सरकार अजीब है. कुछ-कुछ समय के अंतराल में यह ख़बर आ जाती है कि गांधी की यादों की नीलामी हो रही है. सरकार को लोगों की भावनाओं की भी कद्र नहीं रही. क्या उसे पता नहीं है कि महात्मा गांधी की यादों की नीलामी होते देखकर किसी भी हिंदुस्तानी का खून खौल उठता है? दरअसल, नीलामी कराने वाली कंपनियों ने गांधी की यादों को एक कमोडिटी बना दिया है. क्या भारत सरकार उन्हें रोकने में असमर्थ है या फिर उसे गांधी की फिक्र ही नहीं रही? वैसे, दोनों ही अवस्थाएं निंदनीय हैं. गांधी की यादें एक के बाद, एक करके नीलाम हो रही हैं, पर सरकार ने हाथ खड़े कर दिए हैं. सवाल यह है कि क्या गांधी की यादों की नीलामी रुक पाएगी? नहीं. ऐसा इसलिए, क्योंकि जिन लोगों ने पहले या हाल में गांधी की यादों को खरीदा है, वे उन सामानों को फिर से बेच देंगे और फिर से उन्हीं सामानों की नीलामी होगी, मुनाफा कमाया जाएगा. यह सिलसिला शायद कभी नहीं रुकने वाला है.
पिछली बार जब नीलामी हुई, तब अख़बारों में यह ख़बर छपी कि सोनिया गांधी मनमोहन सिंह से इस बात से बहुत नाराज़ हैं कि इन चीज़ों की नीलामी रोकने और अपने देश में वापस लाने के लिए उन्होंने कोई क़दम नहीं उठाया. लगता है कि कांग्रेस पार्टी की यह आदत हो गई है या फिर यह एक रणनीति है कि सरकार की हर गलती के बाद मीडिया के जरिए यह ख़बर फैला देना कि सोनिया जी नाराज हैं या राहुल जी दु:खी हैं. देश की जनता अब मीडिया के जरिए फैलाई जाने वाली ऐसी ख़बरों पर भरोसा नहीं करती, क्योंकि लोग जानते हैं कि अगर कांग्रेस पार्टी को गांधी का जरा भी ख्याल होता, तो सोनिया गांधी मनमोहन सिंह को निर्देश देतीं और इस तरह लगातार हो रही गांधी की यादों की नीलामी रोकी जा सकती थी. दुर्भाग्य तो यह है कि ऐसे मामलों में देश का विपक्ष भी खामोश रहता है. दरअसल, देश के राजनीतिक दलों ने सत्ता हासिल करने की दौड़ में फंसकर सारे वैचारिक एवं राजनीतिक मापदंडों को तिलांजलि दे दी है. उन्होंने न स़िर्फ गांधी को भुला दिया, बल्कि उनके विचारों को भी ताख पर रख दिया है. यही वजह है, राजनीति में झूठ और हिंसा का बोलबाला है. ऐसे माहौल में बापू के बारे में सोचने का वक्त भी किसी के पास नहीं है और यही देश का दुर्भाग्य भी है. लेकिन जहां निराशा होती है, वहीं आशा के कमल भी खिलते हैं. कमल मोरारका जैसे व्यक्तित्व का देश में होना हर भारतीय के लिए गर्व की बात है. पिछली बार जब उन्होंने बापू की यादों को खरीदा था, तो यह सुनकर कि उक्त सभी चीज़ें किसी भारतीय ने खरीदी हैं, हर किसी का सीना चौड़ा और सिर गर्व से ऊंचा हो गया था. कमल मोरारका देश के जाने-माने पूंजीपति हैं, लेकिन पूंजीपति से ज़्यादा वह एक देशभक्त और अच्छे इंसान हैं. देश के बड़े पैसे वालों को कमल मोरारका से यह सीखना चाहिए कि देश के प्रति पागलपन की हद तक लगाव कैसे रखा जाता है और देश की आन-बान-शान को कैसे जिया जाता है.
अफ़सोस इस बात का है कि इस नीलामी के दौरान गांधी के खून का सैंपल भी नीलाम हो गया. बापू का यह ब्लड सैंपल 1924 का है. उस वक्त उनके अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ था. ऑपरेशन के बाद वह मुंबई में रुककर स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे. बताया जाता है कि उन्होंने यह ब्लड सैंपल उस परिवार को दिया था, जिसके घर में वह मुंबई में रुके थे. नीलामी करने वाली एजेंसी ने इसकी क़ीमत 10000 पाउंड रखी थी, लेकिन किसी ने इससे बढ़कर बोली नहीं लगाई, इसलिए यह ब्लड सैंपल 7000 पाउंड में नीलाम हुआ. इसे किसने लिया, यानी ब्लड सैंपल किसके पास है, यह सार्वजनिक नहीं किया गया है. अब सवाल है कि अगर यह ब्लड सैंपल किसी क्लोनिंग लेबोरेटरी के हाथ लग जाए और वह गांधी जी की क्लोनिंग शुरू कर दे, तो क्या होगा? अब यह तो कोई साइंटिस्ट ही बता सकता है कि इस ब्लड सैंपल से डीएनए निकाल कर क्या-क्या किया जा सकता है, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इसका गलत इस्तेमाल भी किया जा सकता है. सरकार को तुरंत इस बात का पता लगाना चाहिए कि यह ब्लड सैंपल किसके पास है, क्योंकि इसके किसी भी गलत इस्तेमाल पर रोक लगाने की ज़रूरत है.
भारत सरकार अजीब है. यह योजनाएं तो गांधी के नाम पर बनाती है, लेकिन उनसे जुड़ी यादों को नीलाम होने देती है. संवेदनहीनता का आलम यह है कि हर नीलामी की जानकारी भी सरकार को होती है. हर बार मीडिया में हंगामा मचता है और गांधी के वंशज भी आवाज़ उठाते रहते हैं, लेकिन सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगती. पिछली बार जब गांधी की वस्तुओं की नीलामी हुई थी, तब देश के गांधीवादी संगठन बिलबिला उठा थे और उन्होंने काफी विरोध किया था. प्रधानमंत्री कार्यालय से अपील की गई, अख़बारों में इस पर कई लेख प्रकाशित हुए और टीवी पर बहस भी हुई, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. सरकार कुंभकर्ण की भांति सोती रही और नीलामी का इतना प्रचार हो गया कि गांधी की यादों की क़ीमतें और भी बढ़ गईं. अगर सरकार को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रति कोई श्रद्धा है, तो उसे कुछ कड़े क़दम उठाने पड़ेंगे. इन नीलामियों को रोकने का एक तरीका ढूंढना ही होगा. संसद में फौरन एक क़ानून पास करके यह घोषणा करनी चाहिए कि गांधी की यादों से जुड़ी सारी वस्तुएं राष्ट्रीय संपत्ति हैं. वैसे भी, भारत की ऐतिहासिक विरासत पर पहला हक भारतीयों का है, इसलिए उन्हें सरकार के पास होना ही चाहिए, देश के संग्रहालयों में भी होना चाहिए. उन्हें विदेशी एवं निजी हाथों में जाने से रोकने के उपाय सरकार को करने चाहिए, वरना हम पूरी दुनिया में हंसी के पात्र बन जाएंगे, क्योंकि हर खरीदार कमल मोरारका नहीं होता!
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इस नीलामी के दौरान गांधी के खून का सैंपल भी नीलाम हो गया. बापू का यह ब्लड सैंपल 1924 का है. उस वक्त उनके अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ था. ऑपरेशन के बाद वह मुंबई में रुककर स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे. बताया जाता है कि उन्होंने यह ब्लड सैंपल उस परिवार को दिया था, जिसके घर में वह मुंबई में रुके थे. नीलामी करने वाली एजेंसी ने इसकी क़ीमत 10000 पाउंड रखी थी, लेकिन किसी ने इससे बढ़कर बोली नहीं लगाई.
लंदन में एक बार फिर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यादों की नीलामी हुई और देश का दुर्भाग्य देखिए, भारत सरकार सोती रह गई. एक बार फिर से उसी भारतीय ने देश की लाज बचाई, जिसने पिछली बार गांधी की यादों को विदेशी हाथों में जाने से रोका था और गांधी के खून से सनी मिट्टी भारत लेकर आया था. तारीफ इस बात की होनी चाहिए कि यह शख्स इसे कोई मीडिया में प्रचार का जरिया नहीं बनाता और अपना नाम गुप्त रखता है. वैसे, पहले भी कुछ भारतीयों ने ऐतिहासिक धरोहरें नीलामी में खरीदीं, लेकिन उन्होंने उनका इतना प्रचार किया कि ऐतिहासिक धरोहर को जैसे बेचने की वस्तु में तब्दील कर दिया हो.
सबसे पहले आपको राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यादों से जुड़ी नीलामी के बारे में बताते हैं. यह नीलामी ब्रिटेन के एक बड़े ऑक्शन हाउस मुलॉक्स ने 21 मई, 2013 को की. इसमें बापू की रामायण, चमड़े की चप्पल, लालटेन, माला, काठ की प्रतिमा, पेंटिंग, टोपी, तार, ऑडियो टेप आदि कई चीजों पर बोलियां लगाई गईं. इस नीलामी की जानकारी भारत सरकार को भी थी, लेकिन इस नीलामी में भारत सरकार की तरफ़ से न तो कोई बोली लगाने वाला था और न ही उसकी ओर से बापू से जुड़ी इन यादों को अपने देश में वापस लाने के लिए कोई कोशिश की गई. अफ़सोस इस बात का है कि गांधी की यादों की नीलामी का यह कोई पहला मौका नहीं था, क्योंकि पहले भी सरकार की किरकिरी हो चुकी है. टीवी एवं अख़बारों के जरिए सरकार से गुजारिश की गई कि देश की प्रतिष्ठा को नीलाम होने से रोका जाए. लेकिन कहते हैं कि सोते हुए को तो जगाया जा सकता है, लेकिन जागते हुए को भला कौन जगा सकता है. मतलब यह कि कांग्रेस की सरकार ने अपनी करतूतों से साबित कर दिया है कि उसे न तो महात्मा गांधी की यादों से कोई लगाव है और न ही देश की प्रतिष्ठा की फिक्र है.
जब सरकार को देश की प्रतिष्ठा का ख्याल नहीं रहता है, तो यह ज़िम्मेदारी देश के नागरिकों की हो जाती है. यही काम कमल मोरारका ने किया. जब यह ख़बर आई कि 21 मई, 2013 को बापू से जुड़ी क़रीब 16 वस्तुओं की नीलामी होने जा रही है, तो उन्होंने सरकार की प्रतिक्रिया का इंतज़ार किया. लेकिन जो गलती सरकार ने पिछली बार की थी, वही गलती उसने फिर से दोहरा दी. सरकार की ओर से कोई बयान तक नहीं आया. ऐसे में फिर से कमल मोरारका ने बापू की धरोहर देश में वापस लाने की ठानी और इन 16 वस्तुओं को नीलामी में खरीद लिया. कमल मोरारका की यह पहल पहली नहीं है.
पिछले साल भी कमल मोरारका बापू से जुड़ी यादों को देश में वापस ले आए थे. लंदन के विख्यात ऑक्शन हाउस मुलॉक्स (जो कि स्मृति चिन्हों की नीलामी के लिए मशहूर है) ने 17 अप्रैल, 2012 को महात्मा गांधी से जुड़ी 29 वस्तुओं की नीलामी की थी, जिनमें मुख्य रूप से गांधी जी के खून से सनी घास एवं मिट्टी, ब्रिटेन में वकालत की पढ़ाई करते समय इस्तेमाल किया जाने वाला चश्मा, उनका चरखा, उनके लिखे कुछ पत्र और उनसे जुड़ी ख़बरों के प्रकाशन वाले अख़बारों की वास्तविक प्रतियां शामिल थीं. इन सभी वस्तुओं को कमल मोरारका ने खरीद कर देश की धरोहर देश में लाने और गांधी की यादों को बचाने का काम किया. इसके बाद उन्होंने यह घोषणा की थी कि इन्हें वह अपने व्यक्तिगत इस्तेमाल के लिए नहीं रखेंगे, बल्कि ये देश की धरोहर होंगी. पिछली बार जब बापू की निशानियों को भारत लाया गया, तो कमल मोरारका ने उन्हें अन्ना हज़ारे के सुपुर्द कर दिया. पटना में जब अन्ना हज़ारे ने जनतंत्र रैली की, तो उन्हें पहली बार लोगों के सामने रखा गया. गांधी देश की धरोहर हैं. उनके विचार बहुमूल्य हैं. गांधी के नाम से योजनाएं चला देने भर से राष्ट्रपिता के प्रति सरकार का दायित्व ख़त्म नहीं हो जाता है! असल में गांधी के विचारों को जन-जन तक पहुंचाना सरकार का ही दायित्व है. सरकार को जो करना चाहिए, वह तो करती नहीं, लेकिन उसके अलावा, वह सारा काम करती है. जो काम सरकार को करना चाहिए, वह काम कमल मोरारका कर रहे हैं. इस बार फिर से उन्होंने बापू की धरोहर देश में लाकर यह साबित किया कि गांधी को भले ही इस देश के राजनीतिक दल भुला दें, लेकिन एक भारतीय के दिल में गांधी हमेशा से थे और आगे भी रहेंगे.
देश की जनता तो कमल मोरारका के जज्बे को सलाम करती है, लेकिन सरकार ने क्या किया? एक बार अगर नीलामी होती, तो यह कहा भी जा सकता था कि सरकार से गलती हो गई, लेकिन यहां तो हर साल नीलामी हो रही है और सरकार मूकदर्शक बनी बैठी है. क्या भारत सरकार इतनी असहाय एवं कमजोर है या फिर सरकार चलाने वाले लोगों ने गांधी को भुला देने की कसम खा ली है? सवाल तो यह भी उठता है कि क्या अमेरिका के किसी नेता की यादों की नीलामी हुई है या फिर ब्रिटेन की रानी या राजा की यादों पर बोली लगाई जा सकती है? नहीं, क्योंकि या तो नीलामी रोक दी जाती है या फिर वहां की सरकार सारी यादों को खरीद लेती है, लेकिन भारत सरकार अजीब है. कुछ-कुछ समय के अंतराल में यह ख़बर आ जाती है कि गांधी की यादों की नीलामी हो रही है. सरकार को लोगों की भावनाओं की भी कद्र नहीं रही. क्या उसे पता नहीं है कि महात्मा गांधी की यादों की नीलामी होते देखकर किसी भी हिंदुस्तानी का खून खौल उठता है? दरअसल, नीलामी कराने वाली कंपनियों ने गांधी की यादों को एक कमोडिटी बना दिया है. क्या भारत सरकार उन्हें रोकने में असमर्थ है या फिर उसे गांधी की फिक्र ही नहीं रही? वैसे, दोनों ही अवस्थाएं निंदनीय हैं. गांधी की यादें एक के बाद, एक करके नीलाम हो रही हैं, पर सरकार ने हाथ खड़े कर दिए हैं. सवाल यह है कि क्या गांधी की यादों की नीलामी रुक पाएगी? नहीं. ऐसा इसलिए, क्योंकि जिन लोगों ने पहले या हाल में गांधी की यादों को खरीदा है, वे उन सामानों को फिर से बेच देंगे और फिर से उन्हीं सामानों की नीलामी होगी, मुनाफा कमाया जाएगा. यह सिलसिला शायद कभी नहीं रुकने वाला है.
पिछली बार जब नीलामी हुई, तब अख़बारों में यह ख़बर छपी कि सोनिया गांधी मनमोहन सिंह से इस बात से बहुत नाराज़ हैं कि इन चीज़ों की नीलामी रोकने और अपने देश में वापस लाने के लिए उन्होंने कोई क़दम नहीं उठाया. लगता है कि कांग्रेस पार्टी की यह आदत हो गई है या फिर यह एक रणनीति है कि सरकार की हर गलती के बाद मीडिया के जरिए यह ख़बर फैला देना कि सोनिया जी नाराज हैं या राहुल जी दु:खी हैं. देश की जनता अब मीडिया के जरिए फैलाई जाने वाली ऐसी ख़बरों पर भरोसा नहीं करती, क्योंकि लोग जानते हैं कि अगर कांग्रेस पार्टी को गांधी का जरा भी ख्याल होता, तो सोनिया गांधी मनमोहन सिंह को निर्देश देतीं और इस तरह लगातार हो रही गांधी की यादों की नीलामी रोकी जा सकती थी. दुर्भाग्य तो यह है कि ऐसे मामलों में देश का विपक्ष भी खामोश रहता है. दरअसल, देश के राजनीतिक दलों ने सत्ता हासिल करने की दौड़ में फंसकर सारे वैचारिक एवं राजनीतिक मापदंडों को तिलांजलि दे दी है. उन्होंने न स़िर्फ गांधी को भुला दिया, बल्कि उनके विचारों को भी ताख पर रख दिया है. यही वजह है, राजनीति में झूठ और हिंसा का बोलबाला है. ऐसे माहौल में बापू के बारे में सोचने का वक्त भी किसी के पास नहीं है और यही देश का दुर्भाग्य भी है. लेकिन जहां निराशा होती है, वहीं आशा के कमल भी खिलते हैं. कमल मोरारका जैसे व्यक्तित्व का देश में होना हर भारतीय के लिए गर्व की बात है. पिछली बार जब उन्होंने बापू की यादों को खरीदा था, तो यह सुनकर कि उक्त सभी चीज़ें किसी भारतीय ने खरीदी हैं, हर किसी का सीना चौड़ा और सिर गर्व से ऊंचा हो गया था. कमल मोरारका देश के जाने-माने पूंजीपति हैं, लेकिन पूंजीपति से ज़्यादा वह एक देशभक्त और अच्छे इंसान हैं. देश के बड़े पैसे वालों को कमल मोरारका से यह सीखना चाहिए कि देश के प्रति पागलपन की हद तक लगाव कैसे रखा जाता है और देश की आन-बान-शान को कैसे जिया जाता है.
अफ़सोस इस बात का है कि इस नीलामी के दौरान गांधी के खून का सैंपल भी नीलाम हो गया. बापू का यह ब्लड सैंपल 1924 का है. उस वक्त उनके अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ था. ऑपरेशन के बाद वह मुंबई में रुककर स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे. बताया जाता है कि उन्होंने यह ब्लड सैंपल उस परिवार को दिया था, जिसके घर में वह मुंबई में रुके थे. नीलामी करने वाली एजेंसी ने इसकी क़ीमत 10000 पाउंड रखी थी, लेकिन किसी ने इससे बढ़कर बोली नहीं लगाई, इसलिए यह ब्लड सैंपल 7000 पाउंड में नीलाम हुआ. इसे किसने लिया, यानी ब्लड सैंपल किसके पास है, यह सार्वजनिक नहीं किया गया है. अब सवाल है कि अगर यह ब्लड सैंपल किसी क्लोनिंग लेबोरेटरी के हाथ लग जाए और वह गांधी जी की क्लोनिंग शुरू कर दे, तो क्या होगा? अब यह तो कोई साइंटिस्ट ही बता सकता है कि इस ब्लड सैंपल से डीएनए निकाल कर क्या-क्या किया जा सकता है, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इसका गलत इस्तेमाल भी किया जा सकता है. सरकार को तुरंत इस बात का पता लगाना चाहिए कि यह ब्लड सैंपल किसके पास है, क्योंकि इसके किसी भी गलत इस्तेमाल पर रोक लगाने की ज़रूरत है.
भारत सरकार अजीब है. यह योजनाएं तो गांधी के नाम पर बनाती है, लेकिन उनसे जुड़ी यादों को नीलाम होने देती है. संवेदनहीनता का आलम यह है कि हर नीलामी की जानकारी भी सरकार को होती है. हर बार मीडिया में हंगामा मचता है और गांधी के वंशज भी आवाज़ उठाते रहते हैं, लेकिन सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगती. पिछली बार जब गांधी की वस्तुओं की नीलामी हुई थी, तब देश के गांधीवादी संगठन बिलबिला उठा थे और उन्होंने काफी विरोध किया था. प्रधानमंत्री कार्यालय से अपील की गई, अख़बारों में इस पर कई लेख प्रकाशित हुए और टीवी पर बहस भी हुई, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. सरकार कुंभकर्ण की भांति सोती रही और नीलामी का इतना प्रचार हो गया कि गांधी की यादों की क़ीमतें और भी बढ़ गईं. अगर सरकार को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रति कोई श्रद्धा है, तो उसे कुछ कड़े क़दम उठाने पड़ेंगे. इन नीलामियों को रोकने का एक तरीका ढूंढना ही होगा. संसद में फौरन एक क़ानून पास करके यह घोषणा करनी चाहिए कि गांधी की यादों से जुड़ी सारी वस्तुएं राष्ट्रीय संपत्ति हैं. वैसे भी, भारत की ऐतिहासिक विरासत पर पहला हक भारतीयों का है, इसलिए उन्हें सरकार के पास होना ही चाहिए, देश के संग्रहालयों में भी होना चाहिए. उन्हें विदेशी एवं निजी हाथों में जाने से रोकने के उपाय सरकार को करने चाहिए, वरना हम पूरी दुनिया में हंसी के पात्र बन जाएंगे, क्योंकि हर खरीदार कमल मोरारका नहीं होता!
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बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जो बदलते नहीं हैं, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो
कभी सुधरते नहीं हैं. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यादों से जुड़ी
वस्तुओं की फिर से नीलामी हुई. फिर से भारत की ऐतिहासिक धरोहरों पर बोली
लगी, लेकिन भारत की सरकार फिर से सोती रह गई. यह नहीं सुधरी.
हालांकि फिर से एक भारतीय ने भारत की लाज बचाई. एक बार फिर उसी भारतीय ने
महात्मा गांधी की यादों से जुड़ी वस्तुएं खरीदीं और पिछली बार की तरह इस
बार भी अपना नाम मीडिया से छुपा लिया. अजीब इत्तेफाक है, सरकार सुधरती नहीं है और कमल मोरारका का अंदाज बदलता नहीं है.
इस नीलामी के दौरान गांधी के खून का सैंपल भी नीलाम हो गया. बापू का यह ब्लड सैंपल 1924 का है. उस वक्त उनके अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ था. ऑपरेशन के बाद वह मुंबई में रुककर स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे. बताया जाता है कि उन्होंने यह ब्लड सैंपल उस परिवार को दिया था, जिसके घर में वह मुंबई में रुके थे. नीलामी करने वाली एजेंसी ने इसकी क़ीमत 10000 पाउंड रखी थी, लेकिन किसी ने इससे बढ़कर बोली नहीं लगाई.
लंदन में एक बार फिर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यादों की नीलामी हुई और देश का दुर्भाग्य देखिए, भारत सरकार सोती रह गई. एक बार फिर से उसी भारतीय ने देश की लाज बचाई, जिसने पिछली बार गांधी की यादों को विदेशी हाथों में जाने से रोका था और गांधी के खून से सनी मिट्टी भारत लेकर आया था. तारीफ इस बात की होनी चाहिए कि यह शख्स इसे कोई मीडिया में प्रचार का जरिया नहीं बनाता और अपना नाम गुप्त रखता है. वैसे, पहले भी कुछ भारतीयों ने ऐतिहासिक धरोहरें नीलामी में खरीदीं, लेकिन उन्होंने उनका इतना प्रचार किया कि ऐतिहासिक धरोहर को जैसे बेचने की वस्तु में तब्दील कर दिया हो.
सबसे पहले आपको राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यादों से जुड़ी नीलामी के बारे में बताते हैं. यह नीलामी ब्रिटेन के एक बड़े ऑक्शन हाउस मुलॉक्स ने 21 मई, 2013 को की. इसमें बापू की रामायण, चमड़े की चप्पल, लालटेन, माला, काठ की प्रतिमा, पेंटिंग, टोपी, तार, ऑडियो टेप आदि कई चीजों पर बोलियां लगाई गईं. इस नीलामी की जानकारी भारत सरकार को भी थी, लेकिन इस नीलामी में भारत सरकार की तरफ़ से न तो कोई बोली लगाने वाला था और न ही उसकी ओर से बापू से जुड़ी इन यादों को अपने देश में वापस लाने के लिए कोई कोशिश की गई. अफ़सोस इस बात का है कि गांधी की यादों की नीलामी का यह कोई पहला मौका नहीं था, क्योंकि पहले भी सरकार की किरकिरी हो चुकी है. टीवी एवं अख़बारों के जरिए सरकार से गुजारिश की गई कि देश की प्रतिष्ठा को नीलाम होने से रोका जाए. लेकिन कहते हैं कि सोते हुए को तो जगाया जा सकता है, लेकिन जागते हुए को भला कौन जगा सकता है. मतलब यह कि कांग्रेस की सरकार ने अपनी करतूतों से साबित कर दिया है कि उसे न तो महात्मा गांधी की यादों से कोई लगाव है और न ही देश की प्रतिष्ठा की फिक्र है.
जब सरकार को देश की प्रतिष्ठा का ख्याल नहीं रहता है, तो यह ज़िम्मेदारी देश के नागरिकों की हो जाती है. यही काम कमल मोरारका ने किया. जब यह ख़बर आई कि 21 मई, 2013 को बापू से जुड़ी क़रीब 16 वस्तुओं की नीलामी होने जा रही है, तो उन्होंने सरकार की प्रतिक्रिया का इंतज़ार किया. लेकिन जो गलती सरकार ने पिछली बार की थी, वही गलती उसने फिर से दोहरा दी. सरकार की ओर से कोई बयान तक नहीं आया. ऐसे में फिर से कमल मोरारका ने बापू की धरोहर देश में वापस लाने की ठानी और इन 16 वस्तुओं को नीलामी में खरीद लिया. कमल मोरारका की यह पहल पहली नहीं है.
पिछले साल भी कमल मोरारका बापू से जुड़ी यादों को देश में वापस ले आए थे. लंदन के विख्यात ऑक्शन हाउस मुलॉक्स (जो कि स्मृति चिन्हों की नीलामी के लिए मशहूर है) ने 17 अप्रैल, 2012 को महात्मा गांधी से जुड़ी 29 वस्तुओं की नीलामी की थी, जिनमें मुख्य रूप से गांधी जी के खून से सनी घास एवं मिट्टी, ब्रिटेन में वकालत की पढ़ाई करते समय इस्तेमाल किया जाने वाला चश्मा, उनका चरखा, उनके लिखे कुछ पत्र और उनसे जुड़ी ख़बरों के प्रकाशन वाले अख़बारों की वास्तविक प्रतियां शामिल थीं. इन सभी वस्तुओं को कमल मोरारका ने खरीद कर देश की धरोहर देश में लाने और गांधी की यादों को बचाने का काम किया. इसके बाद उन्होंने यह घोषणा की थी कि इन्हें वह अपने व्यक्तिगत इस्तेमाल के लिए नहीं रखेंगे, बल्कि ये देश की धरोहर होंगी. पिछली बार जब बापू की निशानियों को भारत लाया गया, तो कमल मोरारका ने उन्हें अन्ना हज़ारे के सुपुर्द कर दिया. पटना में जब अन्ना हज़ारे ने जनतंत्र रैली की, तो उन्हें पहली बार लोगों के सामने रखा गया. गांधी देश की धरोहर हैं. उनके विचार बहुमूल्य हैं. गांधी के नाम से योजनाएं चला देने भर से राष्ट्रपिता के प्रति सरकार का दायित्व ख़त्म नहीं हो जाता है! असल में गांधी के विचारों को जन-जन तक पहुंचाना सरकार का ही दायित्व है. सरकार को जो करना चाहिए, वह तो करती नहीं, लेकिन उसके अलावा, वह सारा काम करती है. जो काम सरकार को करना चाहिए, वह काम कमल मोरारका कर रहे हैं. इस बार फिर से उन्होंने बापू की धरोहर देश में लाकर यह साबित किया कि गांधी को भले ही इस देश के राजनीतिक दल भुला दें, लेकिन एक भारतीय के दिल में गांधी हमेशा से थे और आगे भी रहेंगे.
देश की जनता तो कमल मोरारका के जज्बे को सलाम करती है, लेकिन सरकार ने क्या किया? एक बार अगर नीलामी होती, तो यह कहा भी जा सकता था कि सरकार से गलती हो गई, लेकिन यहां तो हर साल नीलामी हो रही है और सरकार मूकदर्शक बनी बैठी है. क्या भारत सरकार इतनी असहाय एवं कमजोर है या फिर सरकार चलाने वाले लोगों ने गांधी को भुला देने की कसम खा ली है? सवाल तो यह भी उठता है कि क्या अमेरिका के किसी नेता की यादों की नीलामी हुई है या फिर ब्रिटेन की रानी या राजा की यादों पर बोली लगाई जा सकती है? नहीं, क्योंकि या तो नीलामी रोक दी जाती है या फिर वहां की सरकार सारी यादों को खरीद लेती है, लेकिन भारत सरकार अजीब है. कुछ-कुछ समय के अंतराल में यह ख़बर आ जाती है कि गांधी की यादों की नीलामी हो रही है. सरकार को लोगों की भावनाओं की भी कद्र नहीं रही. क्या उसे पता नहीं है कि महात्मा गांधी की यादों की नीलामी होते देखकर किसी भी हिंदुस्तानी का खून खौल उठता है? दरअसल, नीलामी कराने वाली कंपनियों ने गांधी की यादों को एक कमोडिटी बना दिया है. क्या भारत सरकार उन्हें रोकने में असमर्थ है या फिर उसे गांधी की फिक्र ही नहीं रही? वैसे, दोनों ही अवस्थाएं निंदनीय हैं. गांधी की यादें एक के बाद, एक करके नीलाम हो रही हैं, पर सरकार ने हाथ खड़े कर दिए हैं. सवाल यह है कि क्या गांधी की यादों की नीलामी रुक पाएगी? नहीं. ऐसा इसलिए, क्योंकि जिन लोगों ने पहले या हाल में गांधी की यादों को खरीदा है, वे उन सामानों को फिर से बेच देंगे और फिर से उन्हीं सामानों की नीलामी होगी, मुनाफा कमाया जाएगा. यह सिलसिला शायद कभी नहीं रुकने वाला है.
पिछली बार जब नीलामी हुई, तब अख़बारों में यह ख़बर छपी कि सोनिया गांधी मनमोहन सिंह से इस बात से बहुत नाराज़ हैं कि इन चीज़ों की नीलामी रोकने और अपने देश में वापस लाने के लिए उन्होंने कोई क़दम नहीं उठाया. लगता है कि कांग्रेस पार्टी की यह आदत हो गई है या फिर यह एक रणनीति है कि सरकार की हर गलती के बाद मीडिया के जरिए यह ख़बर फैला देना कि सोनिया जी नाराज हैं या राहुल जी दु:खी हैं. देश की जनता अब मीडिया के जरिए फैलाई जाने वाली ऐसी ख़बरों पर भरोसा नहीं करती, क्योंकि लोग जानते हैं कि अगर कांग्रेस पार्टी को गांधी का जरा भी ख्याल होता, तो सोनिया गांधी मनमोहन सिंह को निर्देश देतीं और इस तरह लगातार हो रही गांधी की यादों की नीलामी रोकी जा सकती थी. दुर्भाग्य तो यह है कि ऐसे मामलों में देश का विपक्ष भी खामोश रहता है. दरअसल, देश के राजनीतिक दलों ने सत्ता हासिल करने की दौड़ में फंसकर सारे वैचारिक एवं राजनीतिक मापदंडों को तिलांजलि दे दी है. उन्होंने न स़िर्फ गांधी को भुला दिया, बल्कि उनके विचारों को भी ताख पर रख दिया है. यही वजह है, राजनीति में झूठ और हिंसा का बोलबाला है. ऐसे माहौल में बापू के बारे में सोचने का वक्त भी किसी के पास नहीं है और यही देश का दुर्भाग्य भी है. लेकिन जहां निराशा होती है, वहीं आशा के कमल भी खिलते हैं. कमल मोरारका जैसे व्यक्तित्व का देश में होना हर भारतीय के लिए गर्व की बात है. पिछली बार जब उन्होंने बापू की यादों को खरीदा था, तो यह सुनकर कि उक्त सभी चीज़ें किसी भारतीय ने खरीदी हैं, हर किसी का सीना चौड़ा और सिर गर्व से ऊंचा हो गया था. कमल मोरारका देश के जाने-माने पूंजीपति हैं, लेकिन पूंजीपति से ज़्यादा वह एक देशभक्त और अच्छे इंसान हैं. देश के बड़े पैसे वालों को कमल मोरारका से यह सीखना चाहिए कि देश के प्रति पागलपन की हद तक लगाव कैसे रखा जाता है और देश की आन-बान-शान को कैसे जिया जाता है.
अफ़सोस इस बात का है कि इस नीलामी के दौरान गांधी के खून का सैंपल भी नीलाम हो गया. बापू का यह ब्लड सैंपल 1924 का है. उस वक्त उनके अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ था. ऑपरेशन के बाद वह मुंबई में रुककर स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे. बताया जाता है कि उन्होंने यह ब्लड सैंपल उस परिवार को दिया था, जिसके घर में वह मुंबई में रुके थे. नीलामी करने वाली एजेंसी ने इसकी क़ीमत 10000 पाउंड रखी थी, लेकिन किसी ने इससे बढ़कर बोली नहीं लगाई, इसलिए यह ब्लड सैंपल 7000 पाउंड में नीलाम हुआ. इसे किसने लिया, यानी ब्लड सैंपल किसके पास है, यह सार्वजनिक नहीं किया गया है. अब सवाल है कि अगर यह ब्लड सैंपल किसी क्लोनिंग लेबोरेटरी के हाथ लग जाए और वह गांधी जी की क्लोनिंग शुरू कर दे, तो क्या होगा? अब यह तो कोई साइंटिस्ट ही बता सकता है कि इस ब्लड सैंपल से डीएनए निकाल कर क्या-क्या किया जा सकता है, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इसका गलत इस्तेमाल भी किया जा सकता है. सरकार को तुरंत इस बात का पता लगाना चाहिए कि यह ब्लड सैंपल किसके पास है, क्योंकि इसके किसी भी गलत इस्तेमाल पर रोक लगाने की ज़रूरत है.
भारत सरकार अजीब है. यह योजनाएं तो गांधी के नाम पर बनाती है, लेकिन उनसे जुड़ी यादों को नीलाम होने देती है. संवेदनहीनता का आलम यह है कि हर नीलामी की जानकारी भी सरकार को होती है. हर बार मीडिया में हंगामा मचता है और गांधी के वंशज भी आवाज़ उठाते रहते हैं, लेकिन सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगती. पिछली बार जब गांधी की वस्तुओं की नीलामी हुई थी, तब देश के गांधीवादी संगठन बिलबिला उठा थे और उन्होंने काफी विरोध किया था. प्रधानमंत्री कार्यालय से अपील की गई, अख़बारों में इस पर कई लेख प्रकाशित हुए और टीवी पर बहस भी हुई, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. सरकार कुंभकर्ण की भांति सोती रही और नीलामी का इतना प्रचार हो गया कि गांधी की यादों की क़ीमतें और भी बढ़ गईं. अगर सरकार को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रति कोई श्रद्धा है, तो उसे कुछ कड़े क़दम उठाने पड़ेंगे. इन नीलामियों को रोकने का एक तरीका ढूंढना ही होगा. संसद में फौरन एक क़ानून पास करके यह घोषणा करनी चाहिए कि गांधी की यादों से जुड़ी सारी वस्तुएं राष्ट्रीय संपत्ति हैं. वैसे भी, भारत की ऐतिहासिक विरासत पर पहला हक भारतीयों का है, इसलिए उन्हें सरकार के पास होना ही चाहिए, देश के संग्रहालयों में भी होना चाहिए. उन्हें विदेशी एवं निजी हाथों में जाने से रोकने के उपाय सरकार को करने चाहिए, वरना हम पूरी दुनिया में हंसी के पात्र बन जाएंगे, क्योंकि हर खरीदार कमल मोरारका नहीं होता!
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इस नीलामी के दौरान गांधी के खून का सैंपल भी नीलाम हो गया. बापू का यह ब्लड सैंपल 1924 का है. उस वक्त उनके अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ था. ऑपरेशन के बाद वह मुंबई में रुककर स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे. बताया जाता है कि उन्होंने यह ब्लड सैंपल उस परिवार को दिया था, जिसके घर में वह मुंबई में रुके थे. नीलामी करने वाली एजेंसी ने इसकी क़ीमत 10000 पाउंड रखी थी, लेकिन किसी ने इससे बढ़कर बोली नहीं लगाई.
लंदन में एक बार फिर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यादों की नीलामी हुई और देश का दुर्भाग्य देखिए, भारत सरकार सोती रह गई. एक बार फिर से उसी भारतीय ने देश की लाज बचाई, जिसने पिछली बार गांधी की यादों को विदेशी हाथों में जाने से रोका था और गांधी के खून से सनी मिट्टी भारत लेकर आया था. तारीफ इस बात की होनी चाहिए कि यह शख्स इसे कोई मीडिया में प्रचार का जरिया नहीं बनाता और अपना नाम गुप्त रखता है. वैसे, पहले भी कुछ भारतीयों ने ऐतिहासिक धरोहरें नीलामी में खरीदीं, लेकिन उन्होंने उनका इतना प्रचार किया कि ऐतिहासिक धरोहर को जैसे बेचने की वस्तु में तब्दील कर दिया हो.
सबसे पहले आपको राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यादों से जुड़ी नीलामी के बारे में बताते हैं. यह नीलामी ब्रिटेन के एक बड़े ऑक्शन हाउस मुलॉक्स ने 21 मई, 2013 को की. इसमें बापू की रामायण, चमड़े की चप्पल, लालटेन, माला, काठ की प्रतिमा, पेंटिंग, टोपी, तार, ऑडियो टेप आदि कई चीजों पर बोलियां लगाई गईं. इस नीलामी की जानकारी भारत सरकार को भी थी, लेकिन इस नीलामी में भारत सरकार की तरफ़ से न तो कोई बोली लगाने वाला था और न ही उसकी ओर से बापू से जुड़ी इन यादों को अपने देश में वापस लाने के लिए कोई कोशिश की गई. अफ़सोस इस बात का है कि गांधी की यादों की नीलामी का यह कोई पहला मौका नहीं था, क्योंकि पहले भी सरकार की किरकिरी हो चुकी है. टीवी एवं अख़बारों के जरिए सरकार से गुजारिश की गई कि देश की प्रतिष्ठा को नीलाम होने से रोका जाए. लेकिन कहते हैं कि सोते हुए को तो जगाया जा सकता है, लेकिन जागते हुए को भला कौन जगा सकता है. मतलब यह कि कांग्रेस की सरकार ने अपनी करतूतों से साबित कर दिया है कि उसे न तो महात्मा गांधी की यादों से कोई लगाव है और न ही देश की प्रतिष्ठा की फिक्र है.
जब सरकार को देश की प्रतिष्ठा का ख्याल नहीं रहता है, तो यह ज़िम्मेदारी देश के नागरिकों की हो जाती है. यही काम कमल मोरारका ने किया. जब यह ख़बर आई कि 21 मई, 2013 को बापू से जुड़ी क़रीब 16 वस्तुओं की नीलामी होने जा रही है, तो उन्होंने सरकार की प्रतिक्रिया का इंतज़ार किया. लेकिन जो गलती सरकार ने पिछली बार की थी, वही गलती उसने फिर से दोहरा दी. सरकार की ओर से कोई बयान तक नहीं आया. ऐसे में फिर से कमल मोरारका ने बापू की धरोहर देश में वापस लाने की ठानी और इन 16 वस्तुओं को नीलामी में खरीद लिया. कमल मोरारका की यह पहल पहली नहीं है.
पिछले साल भी कमल मोरारका बापू से जुड़ी यादों को देश में वापस ले आए थे. लंदन के विख्यात ऑक्शन हाउस मुलॉक्स (जो कि स्मृति चिन्हों की नीलामी के लिए मशहूर है) ने 17 अप्रैल, 2012 को महात्मा गांधी से जुड़ी 29 वस्तुओं की नीलामी की थी, जिनमें मुख्य रूप से गांधी जी के खून से सनी घास एवं मिट्टी, ब्रिटेन में वकालत की पढ़ाई करते समय इस्तेमाल किया जाने वाला चश्मा, उनका चरखा, उनके लिखे कुछ पत्र और उनसे जुड़ी ख़बरों के प्रकाशन वाले अख़बारों की वास्तविक प्रतियां शामिल थीं. इन सभी वस्तुओं को कमल मोरारका ने खरीद कर देश की धरोहर देश में लाने और गांधी की यादों को बचाने का काम किया. इसके बाद उन्होंने यह घोषणा की थी कि इन्हें वह अपने व्यक्तिगत इस्तेमाल के लिए नहीं रखेंगे, बल्कि ये देश की धरोहर होंगी. पिछली बार जब बापू की निशानियों को भारत लाया गया, तो कमल मोरारका ने उन्हें अन्ना हज़ारे के सुपुर्द कर दिया. पटना में जब अन्ना हज़ारे ने जनतंत्र रैली की, तो उन्हें पहली बार लोगों के सामने रखा गया. गांधी देश की धरोहर हैं. उनके विचार बहुमूल्य हैं. गांधी के नाम से योजनाएं चला देने भर से राष्ट्रपिता के प्रति सरकार का दायित्व ख़त्म नहीं हो जाता है! असल में गांधी के विचारों को जन-जन तक पहुंचाना सरकार का ही दायित्व है. सरकार को जो करना चाहिए, वह तो करती नहीं, लेकिन उसके अलावा, वह सारा काम करती है. जो काम सरकार को करना चाहिए, वह काम कमल मोरारका कर रहे हैं. इस बार फिर से उन्होंने बापू की धरोहर देश में लाकर यह साबित किया कि गांधी को भले ही इस देश के राजनीतिक दल भुला दें, लेकिन एक भारतीय के दिल में गांधी हमेशा से थे और आगे भी रहेंगे.
देश की जनता तो कमल मोरारका के जज्बे को सलाम करती है, लेकिन सरकार ने क्या किया? एक बार अगर नीलामी होती, तो यह कहा भी जा सकता था कि सरकार से गलती हो गई, लेकिन यहां तो हर साल नीलामी हो रही है और सरकार मूकदर्शक बनी बैठी है. क्या भारत सरकार इतनी असहाय एवं कमजोर है या फिर सरकार चलाने वाले लोगों ने गांधी को भुला देने की कसम खा ली है? सवाल तो यह भी उठता है कि क्या अमेरिका के किसी नेता की यादों की नीलामी हुई है या फिर ब्रिटेन की रानी या राजा की यादों पर बोली लगाई जा सकती है? नहीं, क्योंकि या तो नीलामी रोक दी जाती है या फिर वहां की सरकार सारी यादों को खरीद लेती है, लेकिन भारत सरकार अजीब है. कुछ-कुछ समय के अंतराल में यह ख़बर आ जाती है कि गांधी की यादों की नीलामी हो रही है. सरकार को लोगों की भावनाओं की भी कद्र नहीं रही. क्या उसे पता नहीं है कि महात्मा गांधी की यादों की नीलामी होते देखकर किसी भी हिंदुस्तानी का खून खौल उठता है? दरअसल, नीलामी कराने वाली कंपनियों ने गांधी की यादों को एक कमोडिटी बना दिया है. क्या भारत सरकार उन्हें रोकने में असमर्थ है या फिर उसे गांधी की फिक्र ही नहीं रही? वैसे, दोनों ही अवस्थाएं निंदनीय हैं. गांधी की यादें एक के बाद, एक करके नीलाम हो रही हैं, पर सरकार ने हाथ खड़े कर दिए हैं. सवाल यह है कि क्या गांधी की यादों की नीलामी रुक पाएगी? नहीं. ऐसा इसलिए, क्योंकि जिन लोगों ने पहले या हाल में गांधी की यादों को खरीदा है, वे उन सामानों को फिर से बेच देंगे और फिर से उन्हीं सामानों की नीलामी होगी, मुनाफा कमाया जाएगा. यह सिलसिला शायद कभी नहीं रुकने वाला है.
पिछली बार जब नीलामी हुई, तब अख़बारों में यह ख़बर छपी कि सोनिया गांधी मनमोहन सिंह से इस बात से बहुत नाराज़ हैं कि इन चीज़ों की नीलामी रोकने और अपने देश में वापस लाने के लिए उन्होंने कोई क़दम नहीं उठाया. लगता है कि कांग्रेस पार्टी की यह आदत हो गई है या फिर यह एक रणनीति है कि सरकार की हर गलती के बाद मीडिया के जरिए यह ख़बर फैला देना कि सोनिया जी नाराज हैं या राहुल जी दु:खी हैं. देश की जनता अब मीडिया के जरिए फैलाई जाने वाली ऐसी ख़बरों पर भरोसा नहीं करती, क्योंकि लोग जानते हैं कि अगर कांग्रेस पार्टी को गांधी का जरा भी ख्याल होता, तो सोनिया गांधी मनमोहन सिंह को निर्देश देतीं और इस तरह लगातार हो रही गांधी की यादों की नीलामी रोकी जा सकती थी. दुर्भाग्य तो यह है कि ऐसे मामलों में देश का विपक्ष भी खामोश रहता है. दरअसल, देश के राजनीतिक दलों ने सत्ता हासिल करने की दौड़ में फंसकर सारे वैचारिक एवं राजनीतिक मापदंडों को तिलांजलि दे दी है. उन्होंने न स़िर्फ गांधी को भुला दिया, बल्कि उनके विचारों को भी ताख पर रख दिया है. यही वजह है, राजनीति में झूठ और हिंसा का बोलबाला है. ऐसे माहौल में बापू के बारे में सोचने का वक्त भी किसी के पास नहीं है और यही देश का दुर्भाग्य भी है. लेकिन जहां निराशा होती है, वहीं आशा के कमल भी खिलते हैं. कमल मोरारका जैसे व्यक्तित्व का देश में होना हर भारतीय के लिए गर्व की बात है. पिछली बार जब उन्होंने बापू की यादों को खरीदा था, तो यह सुनकर कि उक्त सभी चीज़ें किसी भारतीय ने खरीदी हैं, हर किसी का सीना चौड़ा और सिर गर्व से ऊंचा हो गया था. कमल मोरारका देश के जाने-माने पूंजीपति हैं, लेकिन पूंजीपति से ज़्यादा वह एक देशभक्त और अच्छे इंसान हैं. देश के बड़े पैसे वालों को कमल मोरारका से यह सीखना चाहिए कि देश के प्रति पागलपन की हद तक लगाव कैसे रखा जाता है और देश की आन-बान-शान को कैसे जिया जाता है.
अफ़सोस इस बात का है कि इस नीलामी के दौरान गांधी के खून का सैंपल भी नीलाम हो गया. बापू का यह ब्लड सैंपल 1924 का है. उस वक्त उनके अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ था. ऑपरेशन के बाद वह मुंबई में रुककर स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे. बताया जाता है कि उन्होंने यह ब्लड सैंपल उस परिवार को दिया था, जिसके घर में वह मुंबई में रुके थे. नीलामी करने वाली एजेंसी ने इसकी क़ीमत 10000 पाउंड रखी थी, लेकिन किसी ने इससे बढ़कर बोली नहीं लगाई, इसलिए यह ब्लड सैंपल 7000 पाउंड में नीलाम हुआ. इसे किसने लिया, यानी ब्लड सैंपल किसके पास है, यह सार्वजनिक नहीं किया गया है. अब सवाल है कि अगर यह ब्लड सैंपल किसी क्लोनिंग लेबोरेटरी के हाथ लग जाए और वह गांधी जी की क्लोनिंग शुरू कर दे, तो क्या होगा? अब यह तो कोई साइंटिस्ट ही बता सकता है कि इस ब्लड सैंपल से डीएनए निकाल कर क्या-क्या किया जा सकता है, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इसका गलत इस्तेमाल भी किया जा सकता है. सरकार को तुरंत इस बात का पता लगाना चाहिए कि यह ब्लड सैंपल किसके पास है, क्योंकि इसके किसी भी गलत इस्तेमाल पर रोक लगाने की ज़रूरत है.
भारत सरकार अजीब है. यह योजनाएं तो गांधी के नाम पर बनाती है, लेकिन उनसे जुड़ी यादों को नीलाम होने देती है. संवेदनहीनता का आलम यह है कि हर नीलामी की जानकारी भी सरकार को होती है. हर बार मीडिया में हंगामा मचता है और गांधी के वंशज भी आवाज़ उठाते रहते हैं, लेकिन सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगती. पिछली बार जब गांधी की वस्तुओं की नीलामी हुई थी, तब देश के गांधीवादी संगठन बिलबिला उठा थे और उन्होंने काफी विरोध किया था. प्रधानमंत्री कार्यालय से अपील की गई, अख़बारों में इस पर कई लेख प्रकाशित हुए और टीवी पर बहस भी हुई, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. सरकार कुंभकर्ण की भांति सोती रही और नीलामी का इतना प्रचार हो गया कि गांधी की यादों की क़ीमतें और भी बढ़ गईं. अगर सरकार को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रति कोई श्रद्धा है, तो उसे कुछ कड़े क़दम उठाने पड़ेंगे. इन नीलामियों को रोकने का एक तरीका ढूंढना ही होगा. संसद में फौरन एक क़ानून पास करके यह घोषणा करनी चाहिए कि गांधी की यादों से जुड़ी सारी वस्तुएं राष्ट्रीय संपत्ति हैं. वैसे भी, भारत की ऐतिहासिक विरासत पर पहला हक भारतीयों का है, इसलिए उन्हें सरकार के पास होना ही चाहिए, देश के संग्रहालयों में भी होना चाहिए. उन्हें विदेशी एवं निजी हाथों में जाने से रोकने के उपाय सरकार को करने चाहिए, वरना हम पूरी दुनिया में हंसी के पात्र बन जाएंगे, क्योंकि हर खरीदार कमल मोरारका नहीं होता!
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