अंतिम अपडेट 13 मई 2013 2:47 PM IST पर
इतने
दूर हो गए हैं हमारे राजनेता देश के यथार्थ से कि ऐसा लगता है, उनका भारत
कोई और है और हमारा कोई और। उनका भारत अब सीमित है दिल्ली शहर के लुटियंस
के इलाके की सीमाओं तक।
जब हमारे भारत के दर्शन करने निकलते हैं नेताजी, तब या तो हेलीकॉप्टर में आते हैं या बड़ी-बड़ी विदेशी गाड़ियों के काफिले में सवार होकर। अपने भारत के किसी गांव में जब पहुंचते हैं नेताजी महाराज, तो चमचों से फौरन घिर जाते हैं, जो उनको यथार्थ की झलक तक नहीं देखने देते।
नहीं देखने देते वे गंदी नालियां, जो गांवों की हर गलियों में दिखती हैं, नहीं देखने देते वे बेहाल बच्चे, जो उन गलियों के पास खेलते हैं, नहीं देखने देते हैं उनकी बीमार माताओं की शक्लें, जो वैसे भी फटी-पुरानी धोतियों के पल्लुओं में ढकी रहती हैं नेताजी के सामने।
समस्या यह है कि हमारे राजनेता इतने दूर हो चुके हैं भारत के यथार्थ से कि ऐसे कानून बना रहे हैं आजकल, जिनका उस यथार्थ से दूर का रिश्ता भी नहीं रहा। सो पारित होगा देर-सवेर संसद में खाद्य सुरक्षा विधेयक इस देश के 45 प्रतिशत कुपोषित बच्चों के नाम पर। लेकिन ऐसे विधेयक का समर्थन करना उचित नहीं, जो बच्चों में कुपोषण कम करने में काम नहीं आए। इसलिए कि इतनी बड़ी योजना की सफलता निर्भर है हजारों सरकारी अधिकारियों की ईमानदारी पर।
इतने सारे ईमानदार अफसर होते देश में, तो कुपोषण कब का खत्म हो गया होता, स्कूलों में अच्छी शिक्षा कब की शुरू हो गई होती और स्वास्थ्य केंद्रों में अच्छा इलाज कब का शुरू हो गया होता।
मेरी नजरों में देश की समस्याओं में से सबसे गंभीर है बच्चों का कुपोषण। लेकिन इस प्रस्तावित कानून में नहीं है इसका इलाज। लाभ होता है अगर इसका किसी को, तो सिर्फ भ्रष्ट अधिकारियों को, जिनको जरा-सी तकलीफ नहीं होती भूखे बच्चों के मुंह से निवाले छीनते हुए। इस कानून को पारित करने के लिए सबसे ज्यादा दबाव पड़ रहा है सोनिया गांधी का।
वर्ष 1987 की बात है। राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, और ओडिशा के कालाहांडी व कोरापुट जिलों में बरसात के न आने से फसल बर्बाद हो गई थी। बच्चे भूख से मरने लग गए थे। गरीब माताएं अपने बच्चों की जान बचाने के मारे उन्हें बेच रही थीं खुलेआम।
मैं उन दिनों लंदन के संडे टाइम्स अखबार के लिए लिखती थी, और लंदन तक जब इस अकाल की खबर पहुंची, तब उन्होंने मुझे ओडिशा भेजा। वहां पहुंचने पर मैंने देखा कि जिन गांवों में बच्चे मर रहे थे, वे पहाड़ी इलाकों में थे और अक्सर उन तक कच्ची सड़कें भी नहीं जाती थीं। घंटों पैदल चलने के बाद मैं जब उन पहाड़ी गांवों में पहुंची, तो देखा कि बच्चे तड़प-तड़पकर मर रहे थे।
वहां जो लोग मिले, उनके पेट में महीनों से अनाज नहीं गया था। मुझे इतना दुख हुआ कि दिल्ली पहुंचते ही मैंने उन सारे गांवों की सूची भेजी प्रधानमंत्री के दफ्तर में इस सुझाव के साथ, कि वह खुद कोरापुट-कालाहांडी के दौरे पर जाएं।
हुआ यह कि सोनिया गांधी को साथ लेकर प्रधानमंत्री राजीव गांधी गए तो जरूर उस इलाके के दौरे पर, लेकिन वहां पहुंचकर उनको ओडिशा के कांग्रेसी मुख्यमंत्री जानकीवल्लभ पटनायक ने ऐसे लोगों से मिलवाया, जो टीवी पर कहने को तैयार थे कि भूख से एक भी बच्चा नहीं मरा है।
सो आज क्यों सोनिया गांधी इस खाद्य सुरक्षा विधेयक को पारित कराने पर इतना बल दे रही हैं? क्या वास्तव में इसलिए कि उनके दिल में अब इस देश के गरीब बच्चों के लिए दर्द पैदा हो गया है? या इसलिए कि इस सस्ते अनाजे के आवंटन से बटोरे जा सकते हैं नादान लोगों के वोट?
या इसलिए कि वह घिरी हुई हैं वामपंथी विचारधारा के लोगों से, जिनका विश्वास होता है सरकारी अफसरों की ईमानदारी पर? इन सवालों के जवाब तो नहीं हैं मेरे पास, लेकिन यकीन के साथ कह सकती हूं कि इस विधेयक के पारित होने के बाद इस देश के बच्चों में कुपोषण के कम होने की कोई उम्मीद नहीं है।
जब हमारे भारत के दर्शन करने निकलते हैं नेताजी, तब या तो हेलीकॉप्टर में आते हैं या बड़ी-बड़ी विदेशी गाड़ियों के काफिले में सवार होकर। अपने भारत के किसी गांव में जब पहुंचते हैं नेताजी महाराज, तो चमचों से फौरन घिर जाते हैं, जो उनको यथार्थ की झलक तक नहीं देखने देते।
नहीं देखने देते वे गंदी नालियां, जो गांवों की हर गलियों में दिखती हैं, नहीं देखने देते वे बेहाल बच्चे, जो उन गलियों के पास खेलते हैं, नहीं देखने देते हैं उनकी बीमार माताओं की शक्लें, जो वैसे भी फटी-पुरानी धोतियों के पल्लुओं में ढकी रहती हैं नेताजी के सामने।
समस्या यह है कि हमारे राजनेता इतने दूर हो चुके हैं भारत के यथार्थ से कि ऐसे कानून बना रहे हैं आजकल, जिनका उस यथार्थ से दूर का रिश्ता भी नहीं रहा। सो पारित होगा देर-सवेर संसद में खाद्य सुरक्षा विधेयक इस देश के 45 प्रतिशत कुपोषित बच्चों के नाम पर। लेकिन ऐसे विधेयक का समर्थन करना उचित नहीं, जो बच्चों में कुपोषण कम करने में काम नहीं आए। इसलिए कि इतनी बड़ी योजना की सफलता निर्भर है हजारों सरकारी अधिकारियों की ईमानदारी पर।
इतने सारे ईमानदार अफसर होते देश में, तो कुपोषण कब का खत्म हो गया होता, स्कूलों में अच्छी शिक्षा कब की शुरू हो गई होती और स्वास्थ्य केंद्रों में अच्छा इलाज कब का शुरू हो गया होता।
मेरी नजरों में देश की समस्याओं में से सबसे गंभीर है बच्चों का कुपोषण। लेकिन इस प्रस्तावित कानून में नहीं है इसका इलाज। लाभ होता है अगर इसका किसी को, तो सिर्फ भ्रष्ट अधिकारियों को, जिनको जरा-सी तकलीफ नहीं होती भूखे बच्चों के मुंह से निवाले छीनते हुए। इस कानून को पारित करने के लिए सबसे ज्यादा दबाव पड़ रहा है सोनिया गांधी का।
वर्ष 1987 की बात है। राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, और ओडिशा के कालाहांडी व कोरापुट जिलों में बरसात के न आने से फसल बर्बाद हो गई थी। बच्चे भूख से मरने लग गए थे। गरीब माताएं अपने बच्चों की जान बचाने के मारे उन्हें बेच रही थीं खुलेआम।
मैं उन दिनों लंदन के संडे टाइम्स अखबार के लिए लिखती थी, और लंदन तक जब इस अकाल की खबर पहुंची, तब उन्होंने मुझे ओडिशा भेजा। वहां पहुंचने पर मैंने देखा कि जिन गांवों में बच्चे मर रहे थे, वे पहाड़ी इलाकों में थे और अक्सर उन तक कच्ची सड़कें भी नहीं जाती थीं। घंटों पैदल चलने के बाद मैं जब उन पहाड़ी गांवों में पहुंची, तो देखा कि बच्चे तड़प-तड़पकर मर रहे थे।
वहां जो लोग मिले, उनके पेट में महीनों से अनाज नहीं गया था। मुझे इतना दुख हुआ कि दिल्ली पहुंचते ही मैंने उन सारे गांवों की सूची भेजी प्रधानमंत्री के दफ्तर में इस सुझाव के साथ, कि वह खुद कोरापुट-कालाहांडी के दौरे पर जाएं।
हुआ यह कि सोनिया गांधी को साथ लेकर प्रधानमंत्री राजीव गांधी गए तो जरूर उस इलाके के दौरे पर, लेकिन वहां पहुंचकर उनको ओडिशा के कांग्रेसी मुख्यमंत्री जानकीवल्लभ पटनायक ने ऐसे लोगों से मिलवाया, जो टीवी पर कहने को तैयार थे कि भूख से एक भी बच्चा नहीं मरा है।
सो आज क्यों सोनिया गांधी इस खाद्य सुरक्षा विधेयक को पारित कराने पर इतना बल दे रही हैं? क्या वास्तव में इसलिए कि उनके दिल में अब इस देश के गरीब बच्चों के लिए दर्द पैदा हो गया है? या इसलिए कि इस सस्ते अनाजे के आवंटन से बटोरे जा सकते हैं नादान लोगों के वोट?
या इसलिए कि वह घिरी हुई हैं वामपंथी विचारधारा के लोगों से, जिनका विश्वास होता है सरकारी अफसरों की ईमानदारी पर? इन सवालों के जवाब तो नहीं हैं मेरे पास, लेकिन यकीन के साथ कह सकती हूं कि इस विधेयक के पारित होने के बाद इस देश के बच्चों में कुपोषण के कम होने की कोई उम्मीद नहीं है।
Source: http://www.amarujala.com/news/samachar/reflections/tavleen-singh/food-security-bill-and-its-reality/
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