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Sunday, 26 May 2013

राजनीतिक दल अपनी साख खो बैठे हैं: गोविंदाचार्य

दिल्ली |  के.एन. गोविंदाचार्य मानते हैं कि राजनीति पैसे से सत्ता और फिर सत्ता से पैसा बनाने का खेल नहीं है। यहां पढें उनसे हुई बातचीत के अंश।
सत्ता पक्ष अकेले संख्या बल से नहीं चल सकता है। इसके लिए साख की जरूरत होती है। इस समय सारे राजनीतिक दल अपनी साख गंवा बैठे हैं। जब नीति और नीयत के मामले में सारे दल एक हैं। ऐसी स्थिति में जनता को गुमराह करने के लिए वे एक-दूसरे पर खोखले आरोप लगाते हैं। आज की तल्ख सच्चाई यह है कि सारे दल जनता से कट गए हैं। देश की जनता किस स्थिति में रह रही है और उसकी वास्तविक जरूरतें क्या हैं, इसे किसी दल का नेता और नेतृत्व न तो जानता है और न ही जानने की कोशिश कर रहा है।– के.एन.गोविंदाचार्य
ThePatrikaसवाल- कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी देश की दो सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टियां हैं। दुर्भाग्य से इन दोनों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप हैं। इन पार्टियों से आम लोगों का भरोसा टूटा है। आप इस राजनीतिक परिदृश्य को किस तरह देख रहे हैं?


जवाब- मैं मानता हूं कि देश इन दिनों राजनीतिक संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। यह सच है कि लोकतंत्र पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। संसदीय राजनीति एक मायने में बेमानी सी हो गई है। सत्ता पक्ष और विपक्ष का चिंतन स्तर एक जैसा है। दोनों पक्ष अपने निहित स्वार्थों से ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं। सार्वजनिक जीवन में शुचिता का नामो-निशान भी नहीं रहा है। राजनीतिक दलों और राजनेताओं की कार्यशैली पर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं। वे अपना हित सर्वोपरि समझ बैठे हैं। ऐसी स्थिति से आम जनता का मोह भंग हो रहा है। राजनीतिक दल और राजनेता विश्वसनीयता के संकट से जूझ रहे हैं। देश अराजकता की तरफ बढ़ रहा है। आज की जमीनी सच्चाई यही है।


सवाल- कांग्रेस नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार पर बड़े-बड़े घोटालों के आरोप लग रहे हैं। दूसरी तरफ विपक्षी पार्टी भाजपा इन मुद्दों को उठा रही है। इसके बावजूद भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई देशव्यापी जन-ज्वार पैदा नहीं कर पा रही है। आखिर ऐसा क्यों है?


जवाब- आप यदि गौर करेंगे तो पाएंगे कि वर्तमान परिस्थिति में भारतीय राजनीति में सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच कोई ज्यादा अंतर नहीं रह गया है। नीति, विचार, मुद्दा, आर्थिक और विदेश नीति के स्तर पर सभी राजनीतिक दलों के साथ-साथ भाजपा भी एक ही जगह खड़ी है। प्रमुख विपक्षी पार्टी के रूप में भाजपा भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने का नैतिक अधिकार ही खो चुकी है। सत्ता पक्ष अकेले संख्या बल से नहीं चल सकता है। इसके लिए साख की जरूरत होती है। इस समय सारे राजनीतिक दल अपनी साख गंवा बैठे हैं। जब नीति और नीयत के मामले में सारे दल एक हैं। ऐसी स्थिति में जनता को गुमराह करने के लिए वे एक-दूसरे पर खोखले आरोप लगाते हैं। आज की तल्ख सच्चाई यह है कि सारे दल जनता से कट गए हैं। देश की जनता किस स्थिति में रह रही है और उसकी वास्तविक जरूरतें क्या हैं, इसे किसी दल का नेता और नेतृत्व न तो जानता है और न ही जानने की कोशिश कर रहा है। राजनीतिक दल सत्ता में बने रहने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। इसके लिए हर तरह की जोड़-तोड़ और तिकड़म उनके स्वभाव का हिस्सा हो चुकी है। ऐसे में जनता किसी की बात पर अधिक भरोसा करने को तैयार नहीं है। वह राजनीतिक विकल्पों के अभाव में किसी भी दल को वोट दे देती है।


सवाल- अरविंद केजरीवाल भ्रष्टाचार के खिलाफ ही आंदोलन करते हुए एक राजनीति पार्टी बना चुके हैं। देश में पहले से ही कई राजनीतिक पार्टियां हैं। ऐसे में एक नए अभियानों से बनी नई राजनीतिक पार्टी का भविष्य आप किस रूप में देखते हैं?
जवाब- देश में इस समय सच्चे विपक्ष का स्थान रिक्त है। अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल, बाबा रामदेव और मेधा पाटेकर जैसे लोगों के आंदोलनों से जनता के अंदर उम्मीद की किरण जगी है। ऐसे में निश्चय ही ये सारे आंदोलन या अभियान विपक्ष की सही भूमिका में हैं। पर इसे मजबूती देने के लिए सभी जन आंदोलनों को आपस में प्रतिद्वंद्वी की भूमिका में नहीं, बल्कि सहचर्य की भूमिका में आना होगा। अब अपनी-अपनी भूमिका निश्चित कर जनता की उम्मीदों पर खरा उतरने की जिम्मेदारी इन आंदोलनों की है। अरविंद केजरीवाल ने एक राजनीतिक विकल्प देने की कोशिश की है। यह देश की जनता के लिए आशा जगाने वाली बात है।


सवाल- भाजपा के लोग कांग्रेस नेतृत्व पर भ्रष्टाचार के आरोप लगातार लगा रहे हैं, जबकि दूसरी तरफ भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी पर भी गंभीर आरोप लगे हैं। इसपर भाजपा के अंदर भी बहस चल रही है। पर पार्टी अपने अध्यक्ष के बचाव में खड़ी है। उनके ऊपर लगे आरोपों को भ्रष्टाचार नहीं मानती है। पार्टी का कहना है कि यह कंपनी लॉ की खामी है। इस बारे में आपकी क्या राय है?
जवाब- आज कौन बचा है? पर हां, भ्रष्टाचार के आरोप लगने के बाद तो निश्चय ही सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी का परिचय देते हुए अपने पद से त्याग-पत्र देना चाहिए। पर, ऐसी स्थिति में बचाव की मुद्रा में आना सार्वजनिक जीवन के लिए अच्छा नहीं है। यहां जो लोग यह कह रहे हैं कि नितिन गडकरी के ऊपर लगे आरोप भ्रष्टाचार के नहीं, बल्कि कंपनी लॉ की खामियों की वजह से है। ऐसी स्थिति में वे क्यों नहीं कंपनी लॉ को बदलने की बात करते हैं? यदि देश का कंपनी लॉ इतना गड़बड़ है तो उन्होंने इसको बदलने की मांग कितनी बार की है? ये सवाल तो उठते ही हैं। जनसंघ में एक वरिष्ठ नेता नानाजी देशमुख थे, जिनका देश के लगभग सारे उद्योगपतियों से घरेलू संबंध था। वह सभी के यहां आते-जाते थे, लेकिन किसी उद्योगपति को पार्टी का प्राथमिक सदस्य भी नहीं बनाया। उनपर कभी कोई आरोप भी नहीं लगा। इसे सार्वजनिक जीवन की नैतिकता और राजनीतिक कर्तव्यनिष्ठता का सिद्ध प्रमाण कह सकते हैं।


सवाल- आप तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समर्पित स्वयंसेवक रहे हैं। गडकरी विवाद पर तो कुछ लोग संघ पर भी सवाल उठा रहे हैं। कहा जा रहा है कि संघ का उन्हें संरक्षण है। सही क्या है?
जवाब-नितिन गडकरी के भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद यह धारणा मजबूत हुई है कि संघ, भाजपा के आंतरिक मामलों में सीधा हस्तक्षेप करता है। संघ को इस धारणा को तोड़ने के लिए जल्द ही आवश्यक कदम उठाने चाहिए।


सवाल- राजनीति में युवा पीड़ी आ रही है। उनका हस्तक्षेप बढ़ रहा है। राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी में दूसरे नंबर के नेता हैं। उन्होंने एक रैली में कहा कि व्यक्तिगत भ्रष्टाचार से देश को उतना नुकसान नहीं हुआ है, जितना कि व्यवस्था में खामी के कारण हुआ है। इसका क्या अर्थ है?
जवाब-राहुल गांधी देश के  प्रथम राजनीतिक परिवार से हैं। वे उस परिवार और पार्टी के प्रतिनिधि हैं, जिसके हाथ में आजादी के बाद से सत्ता की बागडोर रही है। साठ सालों से भी अधिक समय से यह परिवार और पार्टी सत्ता में बैठी है। पर देश की जरूरत को पूरा करने में यह परिवार और उनकी पार्टी नाकाबिल साबित हुई है। अपनी अक्षमता को सार्वजनिक रूप से देश की जनता के सामने स्वीकार करने की जगह, अब ये लोग राजनीतिक व्यवस्था में दोष ढूंढ़ रहे हैं। यह सीधे-सीधे अपनी जिम्मेदारी से बचने वाली बात है। अगर, कांग्रेस सत्ता चलाने में अपने को नाकाबिल पा रही है तो उसे देश से माफी मांगकर राजनीति से अलग हो जाना चाहिए।


सवाल-लोकसभा चुनाव भले ही 2014 में हों, लेकिन चुनावी तैयारियां अभी से शुरू हो गई हैं। आपको अगले चुनाव का राजनीतिक परिदृश्य किस रूप में नजर आता है?
जवाब- व्यवस्था परिवर्तन के लिहाज से यह चुनाव खास मायने नहीं रखता है। यथा स्थितिवादी ताकतें इस चुनाव में भी मजबूत होंगी। राजनीतिक दलों का खोखलापन और अनैतिक गठजोड़ पहले से अधिक भौंड़े रूप में सामने आएगा। लगता यही है कि जनता के सामने अच्छे राजनीतिक विकल्प का अभाव इस बार भी बना रहेगा।

Source: http://thepatrika.com/NewsPortal/h?cID=IrMuH6HXnA8%3D

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