पिछले कुछ दिनों से लगातार देश के इलेक्ट्रॉनिक, प्रिंट और टीवी जैसे आम जनता तक पहुँच रखने वाले प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ का प्रयोग देश की सुरक्षा सेनाओं के तीनों अंगों (थलसेना, वायु सेना और जल सेना) के भूतपूर्व सेवानिवृत सिपाहियों की एक रैंक एक पेंशन की शांतिपूर्ण माँग को भ्रमित कर कुछ सरकारी अधिकारी देश के आम नागरिकों और नेताओं को नाकि केवल गुमराह कर रहे है वरना सिपाहियों के खिलाफ दुष्प्रचार कर उन्हें बदनाम करने की साजिश कर रहे हैं. मेरा यह प्रयास है कि देशभक्त सैनिकों के साथ होने वाले अन्याय और नौकरशाहों की घिनोनी साज़िशों से भारत की सेना का सर्वोच्च सम्मान करने वाली जनता को सत्य से अवगत करवाना है.
भारत की शांति प्रिया जनता शायद इन तथ्यों से अवगत नहीं है कि किस तरह भारत के चंद नेताओं ने अपनी झूठी शान और आत्मग्लानि को पूरा करने के लिए सशस्त्र बलों को ना कि कमजोर किया बल्कि अपनी कुंठा को दूर करने के लिए देश औरसेना के साथ छल भी किया|
इतिहास के पन्नों से
15 अगस्त 1947; को जब भारतवासियों ने 1100 सालों की गुलामी के बाद आज़ादी पाई; तो पूरा भारत खुशी से झूम उठा;जहाँ भारत के सशस्त्रबलों (थलसेना, वायुसेना एवम् जलसेना) ने तिरंगे को सर्वोपरि रखकर देश की संप्रभुता एवम् अखंडता को बनाए रखने की शपथ ली; वहीं कुछ नेताओं और नौकरशाहों ने सेनाओं की निजी संप्रभुता को स्वार्थों के कारण अपने हाथों की कठपुतली बनाने की कोशिश की| जिसका पहला परिणाम 1954 में जम्मू और कश्मीर में सेना के उच्चाधिकारी और नेताओं के बीच होने वाली बहस का नतीजा था | इस सिपाही और नेता नौकरशाहों के टकराव के परिणाम देश के लिए बहुत ही घातक और सेना के प्रति नेताओं की घृणित सोच का जन्म हुआ| क्योंकि जहाँ एक तरफ जम्मू और कश्मीर के नेता नेहरू जी के बहुत करीबी थे वही दूसरी तरफ नेहरू जी का सेना के बारे में जानकारी की कमी भी मुख्य वजह रही है|
जब इस घटना का पता प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जी को चला तो उन्होने नेताओं और नौकरशाहों का साथ देना उचित समझा और सेना की सर्वोच्चता के काल्पनिक भय की वजह से सेना को अपमानित करने की साज़िशों पर साजिशें रच डाली |असहज भय की वजह से कि कहीं सेना ज़्यादा मजबूत ना हो जाए; तो सेना को नीचा दिखाने और नेताओं तथा नौकरशाहों का गुलाम बनाने की साजिशें रचनी शुरू करदी |
इस साजिश के पहले परिणाम का पर्दाफाश तब हुआ जब नेहरू ने कृष्णा मेनन को रक्षामंत्री (17 April 1957 – 31 October 1962) नियुक्त किया | दुर्भाग्यवश वो कृष्णा मेनन जिसको रक्षा का क, ख, ग का पता नहीं था वो भारत के सेनाओं के प्रमुख बन गये और चमड़े के सिक्के चलाने लगे | नेहरू जी ने सेना के खिलाफ हर वो कदम उठाया जिससे हमारी सेनाओं को कमजोर किया जाय और उन्हें भारत माँ और भारतवासियों की सेवा ना कर नेताओं का गुलाम बनाया जा सके | प्रधानमंत्री नेहरू और कृष्णा मेनन की साजिश का पहला शिकार थलसेना अध्यक्ष जनरल के एस थींमईया बने जिन्होने 1959 में रक्षा मंत्री की ग़लत नीतियों के विरोध में सेना प्रमुख से त्यागपत्र दे दिया था. भले ही बाद में त्यागपत्र वापिस लिया ओर 1961 में सेवानिवृत हुए; लेकिन सेना और नेताओं नौकरशाहों के बीच में मेनन ने कभी ना भरनेवाली अविश्वास की दरार डाल दी | जहाँ सेना पूरी सत्यनिष्ठा और देशभक्ति से ओतप्रोत हो कर देश सेवा में सदैव लगी रही; वहीं नेहरू और मेनन ने परोक्ष रूप से तो सेना का सम्मान का ढोंग किया और उसके विपरीत अपरोक्ष रूप से सशस्त्र बलों को नीचा दिखाने की साजिशें रची जाने लगीं | इसी दौरान नेहरू ने सभी राज्यपालों को सेना के उच्च अधिकारियों को देने वाले सम्मानों में शामिल ना करने की राजनीतिक चाल चली वो अभी भी कायम है |
सेना की छवि का पतन जो नेहरू की कुंठित मानसिकता से शुरू हुआ वो आज तक बदस्तूर जारी है | कृष्णा मेनन की बीमारू सोच का विनाशकारी परिणाम 1962 की भारत-चीन युध में भारतीय सेनाओं की प्रत्येक भारत-चीन सीमान्त इलाक़े में हुई लड़ाई का घातक परिणाम जवानो को अपना जीवन बलिदान देकर करना पड़ा | भारतीय सेना केवल नेहरू और मेनन जैसे नेताओं और नौकरशाहों की उपेक्षा का शिकार ही नहीं हो रही थी वहीं दूसरी तरफ युध के लिए ज़रूरी गोला-बारूद, हथियार और रसद आदि की भारी कमी की भी परेशानियों से जूझ रही थी | दुर्भाग्या से जितनी बार सेना ने मेनन को युध के लिए तैयारियों की कमी के बारे में बताया; वह एक रसोइए की तरह जवाब देता “जब ज़रूरत पड़ेगी तो समान लाकर खाना बना लेंगे” | ऐसे नेता, भारतीय सेनाओं को विरासत में मिले जो अच्छे प्रवक्ता और स्वार्थी अभिलाषी थे परंतु अपने ही देश की सेनाओं के प्रति डरी हुई घटिया सोच रखते थे |स्वर्गिया श्री जगन्नाथ बी ए ने कहा था "अगर नेहरू और मेनन की जोड़ी 1965 के भारत-पाक युध में होती तो इस बात में कोई शक नहीं कि आयूब ख़ान दिल्ली में ही नाश्ता करता" |
मेरे मन भी आज एक शंका है कि नेहरू को भारतीय सेनाओं से किस बात का डर था जो उन्होने सेना को नीचा दिखाने के प्रयास में लगभग पूरा लदाख ही चीन को गवाँ दिया होता?
क्या देशवासियों को पता है कि, अगर सेना में देशभक्ति और भारत माँ के लिए बलिदान का प्रेम और जनूंन ना होता तो चीन की सेनाओं को मौजूदा सीमा पर रोक पाना असंभव था परंतु यह बात ना नेहरू और ना मेनन ही समझे | हमारे सैनिक लड़ाई के हर सामान और रसद की अभूतपूर्व कमी के बावजूद अपने मोर्चों पर लड़ते लड़ते “भारत माता की जय” और “जय हिंद” के युधघोष करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गये | बेशर्म नेता इन देशभक्त सिपाहियों का भी अपमान करने से नहीं हिचकिचाते; गद्दार कहीं के | हज़ारों भारतीय सिपाही नेताओं की मानसिक कुंठा और नफ़रत को जानते हुए भी देशवासियों और भारत माता की रक्षा के लिए हंसते हंसते अपने प्राणों का बलिदान कर वीरगति को प्राप्त हुए |
Wife of Soldier Kalpna Sharma candle march at India Gate 23 Aug 15 |
जय जवान जय किसान
नेहरू की मृत्यु के पश्चात; श्री लालबहादुर शास्त्रीजी ने देश के दूसरे प्रधानमंत्री बनने के बाद; भारतीय सशस्त्रबलों की ज़रूरतों पर ध्यान दिया | उन्होने नये रक्षा मंत्री यशवंतराव चौहान (14 November 1962 – 14 November 1966) को सेनाओं के पुनर्गठन में तेज़ी लाने की हिदायत दी | पाकिस्तान के हुक्मरानों ने 1962 भारत-चीन की लड़ाई से लेकर नेहरू की मृत्यु के समय तक हमारी सेना को एक कमजोर विरोधी के रूप में देखा | पाकिस्तान की इस सोच के पीछे अमरीका से लाए गये अत्याधुनिक सैनिक हथियार और टेंक थे जो हर तरह की लड़ाई में भारत की सेना के सामान से अच्छे थे| पाकिस्तान की और से युधस्तर की तैयारियों को ध्यान में रखकर हर संभव मदद दी जाए | शास्त्री जी ने पाकिस्तान की तरफ से की जाने वाली युध की तैयारियों की खबरो को ध्यान में रखते हुए सेना को लड़ाई के लिए ज़रूरी साजो सामान की व्यवस्था के आदेश भी दिए | इससे पहले की भारतीय सेना पूरी अपनी युध की तैयारी और युधाभ्यास में सॅक्ष्म हो पाती, पाकिस्तान ने 5 अगस्त 1965 को जम्मू और कश्मीर में आक्रमण कर दिया | इस विकट परस्थिति में भी भारतीय सेना ने पाकिस्तान को मुँहतोड़ जवाब दिया बल्कि 23 सितंबर 1965 युदविराम होने तक दुश्मन की बहुत सारे इलाक़े पर कब्जा कर लिया| एक बार फिर नेता और नौकरशाहों ने सेना के मनोबल को नीचा करने का काम किया और शास्त्री जी की मर्ज़ी के खिलाफ ज़्यादातर जीते हुए इलाक़े पाकिस्तान को लौटा दिए गये|
शास्त्री जी जिन्होने सशस्त्र बलों; किसानों और भारतवासियों को आ नया नारा जय जवान ज़य किसान का नारा देकर अमर हो गये. क्या शास्त्री जी भारत के साथ होने वाले अन्याय को सहन नही कर पाए और आत्मग्लानि या किसी अन्य साजिश के तहत अपने प्राण बलिदान कर गये ||
सेनाओं का विपरीत परिस्थितियों में अदम्या साहस
भारतीय सेनाओं की अदम्या साहस और विपरीत परिस्थितियों में भी देश की सुरक्षा और अखंडता को बनाए रखने के अद्भुत योगदान को; जहाँ एक तरफ देशवासियों ने खूब सराह; वहीं दूसरी तरफ नेता और नौकरशाह; सेनाओं के खिलाफ छल, कपट और फरेब की नई-नई साजिशें रचने में लगे हुए थे | जबकि सब राजनीतिग और नौकरशाह जानते थे कि मजबूत और सूद्रढ सेना ही देश की सीमाओं की रक्षा बाहरी आक्रमणों से कर सकती है | पहले नेहरू और फिर इंदिरा गाँधी ने नौकरशाहों के कहने पर सेना को कमजोर करने की चालें लगातार चली; जिससे सेना का मनोबल गिरे और नौकरशाह देश की भोली-भली जनता और देशवासियों को मुस्लिम हुक्मरानों की तरह बे-रोकटोक लूटते रहें और शासक बन कर छल की चालें चलते रहें | सन् 1970 का दशक आते-आते जब पाकिस्तान की फिर युध तैयारियों का पता चला तो सेना के उच्चाधिकारियों ने प्रधानमंत्री और रक्षामंत्री को भारतीय सेना की कमियों के बारे में अवगत कराया; तो काफ़ी समय बर्बाद करने के बाद नेता-नौकरशाह गठबंधन ने सेना को ज़रूरी युद्ध के सामान को प्राप्त करने का निर्णय दिया |
पाकिस्तान ने सन् 1971 (3 December 1971 to 16 December 1971) एक बार फिर भारत पर आक्रमण कर दिया और जम्मू कश्मीर से लेकर पूर्वी पाकिस्तान (मौजूदा बांग्लादेश) से लगी हर सीमा पर घुसपैठ शुरू करदी | भारतीय सेनाएँ एक बार फिर पुराने,बेकार और घटिया किस्म के सामान के लेकर सर्वोच्च मनोबल के साथ युध की तैयारी में लग गयी| थलसेना अध्यक्ष फील्ड मार्शल साम मानेक्शा के कुशल मार्ग दर्शन के नीचे भारतीय सेनाओं ने मात्र 16 दिनों में ही पाकिस्तान के पूर्वी हिस्से को काटकर नया इतिहास रचा और नये राष्ट्र बांग्लादेश को आज़ाद करवा दिया | एक बार फिर इस निर्णायक युध में नेताओं और नौकरशाहों का सेनाओं के प्रति अविश्वास और धोखे की चालों का तब पता चला जब सेनाओं के प्रमुखों का इंदिरा गाँधी और रक्षा विभाग के अधिकारियों से युधौपरांत संपर्क हुआ |
सिपाहियों के पेट पर लात
Author with RHS Members at Jantar Mantar on 21Aug 2015 |
इंदिरा जी की बार-बार चेतावनी के बाद भी जब थलसेना अध्यक्ष फील्ड मार्शल साम मानेक्शा ने युध में अधूरी तैयारी के साथ जाने से मना कर दिया तो उस समय तो वो कुछ नहीं कर सकीं लेकिन 1971 भारत-पाक युध फलस्वरूप बांग्लादेश के जन्म होने के बाद नेहरू जी की ही तरह सेना को कमजोर करने के खिलाफ एक और साजिश रच डाली ; जिसके परिणाम हमारी सेनाएँ आज तक भुगत रही हैं| में इस छल कपट और फरेब की साजिश को देशभक्त सेनाओं के साथ किए जाने वाले अपराध की सबसे बड़ी प्रकाष्ठा मानता हूँ; क्योंकि इंदिरा गाँधी ने इस नीति से सिपाहियों के पेट पर लात मारी थी और हज़ारों वीर नारियों और शहीदों की विधवाओं के मुँह से दो समय की पूरी रोटी का निवाला भी छीन लेने की कोशिश की थी |
सबसे पहला सिपाहियों के पेट पर लात मारने का सुझाव खुद प्रधानमंत्री ने दिया| जहाँ 1971 के भारत-पाक युद्ध की अभूतपूर्व सफलता के लिए भारतीय सेनाओं को सम्मानित करना चाहिए था; वहीं इंदिरा जी ने नौकरशाहों के कहने पर सेना को शनिवार और रविवार के दिन विश्राम का नाम देकर वेतन काटने का प्रस्ताव दे डाला | बेशर्मी की सारी हदें पार करने की तरफ एक और घिनोना कदम था| थलसेना अध्यक्ष ने प्रस्ताव सहर्ष यह प्रार्थना करते हुए स्वीकार कर लिया कि अगर चीन या पाकिस्तान शनिवार और रविवार को आक्रमण करते हैं तो सेना युद्ध नहीं करेगी आप देश की दूसरे बलों को लगा सकती है | शायद इंदिरा गाँधी और नौकरशाहों को ऐसे उत्तर की स्वप्न में भी कल्पना नहीं थी | वो काँप उठे और स्थिति को बदलते हुए कहा हम तो मज़ाक कर रहे थे | कितने शर्म की बात है कि देश की प्रधानमंत्री थलसेना अध्यक्ष के साथ भारतमाता की सुरक्षा को लेकर भद्दा मज़ाक कर रही थी| बेशर्म नेता और देशद्रोही सोच वाले अधिकारी जिन्होने सेनाओं को पुलिस की तरह गुलाम बनाने की हर साजिश रची परंतु देशभक्त और देशप्रेम से लबालब सेना ने देश की सुरक्षा में कोई कमी नहीं रखी |
श्री जगन्नाथ बी ए ने 1973 के बाद कहा था “भारतीय सेनाएँ कभी भी देशद्रोही नेताओं और अधिकारियों को सबक सीखा सकती है परंतु उनकी भारत माँ और भारतवासियों के प्रति देशभक्ति का प्रेम रोक रहा है" क्या यह सच्च नहीं ?
पुनः सशस्त्र बलों के खिलाफ नयी साजिश 1973 में नौकरशाहों ने बहुत ही घिनोनी लोमड़ी और गीदड़ की संकीर्ण मानसिकता का परिचय देते हुए नये वेतन के मापदंडों को निर्धारित करने के समय रची | भारतीय सेनाओं के हाजिर सेनिकों, उनकी वीर विधवाओं और सेवानिवृत सैनिकों के पेट पर जोरदार प्रहार उनके वेतन में छल, विश्वासघात और धोखे का उदाहरण पेशकिया|नौकरशाहों ने एक ऐसी साजिश के तहत सेनाओं के लिए जो वेतन मापदंड निर्धारित किए; वो आजतक भारत के किसी भी युवक को सेना में सेवा के लिए प्रोत्साहित नहीं कर सके | फलस्वरूप भारतीय सेनाएँ आज तक भूतपूर्व सैनिकों के वंशजों पर ही चल रही है |नौकरशाहों द्वारा 1973 की वेतन नीति के तहत जो लात सिपाहियों के पेट पर मारी उसका असर सैनिकों के परिवारों, बच्चों की शिक्षा और उनके पालन पोषण पर शीघ्र ही दिखने लगा |
सैनिकों की सेवानिवृत पेंशन मापदंड निर्धारंण में छल
नौकरशाहों ने जब 1973 के वेतन मापदंड तय किए तो जहाँ उन्होने अपने सेवानिवृत कर्मचारियों के लिए सेवानिवृत पेंशन उस अधिकारी की आख़िरी वेतन के 33% हिस्से को बढाकर 50% कर दिया; वहीं सशस्त्र बलों के सैनिकों की पेंशन को 70% से घटा कर 50% कर दिया गया | सेना को नौकरशाहों के सेवानिवृत कर्मचारियों के वेतन बढाने से कोई आपत्ति नहीं है; परंतु आपत्ति है तो वो यह कि देश पर प्राण न्योछावर् करने वाले सैनिकों से साजिश के तहत गद्दारी की गयी थी | इन सभी धोखों के बावजूद; सेना के सिपाही अपने परिवारों की आर्थिक तंगी से युक्त समस्याओं को अलग रखते हुए; इस उम्मीद में देश की सेवा करता रहा; कि हमारे अधिकारी; नेता और नौकरशाह सैनिकों की घरेलू समस्याओं का समाधान कर देंगे | शायद यही उम्मीद आज जंतर मंतर पर सैलाव बनकर उमड़ रही है; जो हर सैनिक और उसके परिवार की आर्थिक समस्याओं का मुख्य कारण बन गयी |
जब भूतपूर्व सैनिको को इस अन्याय का पता चला तो उन्होने नौकरशाहों की इस नाइंसाफी के खिलाफ शांति पूर्वक वार्तालाप किया. सन् 1982 में सेवानिवृत कर्नल इंदरजीत सिह और अन्य सैनिको ने वन रेंक वन पेंशन (ओरोप-OROP) का मुद्दा तत्कालीन प्रधानमंत्री और रक्षामंत्री इंदिरा गाँधी के समक्ष उठाया | प्रधानमंत्री ने पूरे विश्वास के साथ भरोसा दिलाया कि इस त्रुटि को दूर कर सैनिकों के साथ पूर्ण न्याय होगा | श्री जगन्नाथ बी. ए. ने जब यह सुना कि श्रीमती इंदिरा गाँधीं ने ऐसा आश्वासन दिया तो वह हंसते हुए व्यंगात्मक भाव में बोले "क्या कभी, बैल भी दूध देता है" केवल एक और धोखा है |
ओरोप (OROP) के खिलाफ सोची-समझी साजिश
जिस देशप्रेम से भारतीय सेनाएँ देशवासियों क़ि सेवा में तत्पर रहती हैं सैनिकों की उस देशभक्ति की भावना का नेताओं ओर नौकरशाहों ने बार-बार अपमान किया | इस बात की सत्यता भूतपूर्व सैनिकों द्वारा बार-बार शांतिपूर्वक किए जाने वाले विरोध से झलकती है| इंदिरा गाँधी जी के मृत्यु के बाद सैनिकों ने फिर राजीव गाँधी से प्रार्थना की | पहले तो राजीव गाँधी ने अपनी स्वर्गीय माँ को श्रदांजलि देने की बात कह कर भरोसा दिलाया; लेकिन जब नौकरशाहों ने छल का पैंतरा फैंका तो बिना किसी सहयोग और स्पष्ट नीति के आठ वर्ष बेफ़्कूफ़ बनाते रहे | जब भूतपूर्व सैनिकों ने पुनः प्रार्थना की तो राजीव गाँधी ने 1991 के चुनावों तक इंतज़ार करने को कहा; लेकिन राजीव गाँधी की हत्या से एक बार फिर सैनिकों को निराशा ही हाथ लगी |
ऐसी कौन सी माँगे भूतपूर्व सैनिकों ने रखी थी जिसको तो भारतीय प्रधानमंत्री, रक्षामंत्री और नौकरशाह पूरी करने में 1982 से लेकर आज 23 अगस्त 2015 तक असमर्थ लग रहे हैं |
Source: bharatmata-voice
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