वोट-बैंकर राजनेता, पीड़न ग्रंथि से ग्रस्त समुदाय और मीडिया!
जब इस लेख को लिखने बैठा तो लगा इसे दो तरह से लिखा जा सकता है — “दंगे वहीं क्यों होते हैं जहाँ मुसलमान आबादी अधिक होती है” और “दंगे वहीं क्यों होते हैं जहाँ राजनीति अधिकऔर
पत्रकारिता कम होती है”। पहले तरीक़े से लिखने बैठता हूँ तो तमाम वे जगहें
याद आ जाती हैं जहाँ वाक़ई मुस्लिम आबादी अधिक थी और दंगे हुए। दूसरे तरीक़े
से लिखने बैठूँ तो तमाम वे कारण याद आते हैं जिनसे इन सब जगहों पर दंगे
हुए। ताज़ा उदाहरण के तौर पर सहारनपुर को लें तो तस्वीर साफ़ होने लगती है और
भविष्य धुंधला भी नजर आता है। सहारनपुर दंगा पूरी तरह से एक विवादित ज़मीन
पर कोर्ट का फ़ैसला एक समुदाय के हक़ में आने के बाद एक दलाल (मुआफ़ कीजिये,
कोई और बेहतर शब्द नहीं मिला) को दलाली न मिल पाने के बाद पूरे मामले को
धार्मिक रंग दिए जाने की उसकी सफलता और स्थिति को न समझ पाने और न ही
नियंत्रण में कर पाने की प्रशासन की नाकामी की दास्तान है।दंगों
के बारे में यह समझ लेना ज़रूरी है कि दंगे ‘होते’ नहीं ‘करवाए’ जाते हैं।
इन्हें करवाने वालों के कुछ उद्देश्य होते हैं जो सामान्यतया आर्थिक,
राजनैतिक और चुनावी ज़रूरतों से जुड़े होते हैं। इसीलिए कभी-कभी सामान्य
स्थानीय विवाद भी इतना भयावह रूप ले लेते हैं।
मुआमला केवल एक विवादित ज़मीन (माप 329 वर्ग मीटर) को लेकर सिक्ख और मुस्लिम समुदाय के बीच कोर्ट में चलते विवाद का था।
जहाँ एक ओर मुसलामानों का कहना था कि 1947 से पहले इस भूमि पर मस्जिद थी
जिसे ढा दिया गया और उसके बाद इस पर गुरुद्वारे की इमारत बननी शुरू हुई,
वहीँ दूसरी ओर सिख समुदाय इस जमीन के 1922 से लेकर अब तक के दस्तावेज़ों के
आधार पर कह रहा था कि इस ज़मीन को मकान के तौर पर तीन बार बेचा जा चुका है
और यहाँ किसी मस्जिद का कोई उल्लेख नहीं है। इस ज़मीन की सिक्ख समुदाय ने
बाकायदा रजिस्ट्री करवा कर प्रशासन से गुरुद्वारा बनाने की अनुमति लेने के
बाद ही गुरुद्वारा बनाया गया। कोर्ट ने सिक्खों के तर्कों को सही माना और
उनके समुदाय के पक्ष में फ़ैसला दिया। कोर्ट द्वारा दी गई अवधि में मुस्लिम
समुदाय की ओर से भी इस फ़ैसले को चुनौती नहीं दी गई। इसके बाद दंगों के मास्टरमाइंड मुहर्रम अली उर्फ़ पप्पू अली के दबाव के कारण गुरुद्वारा सिंह सभा द्वारा लम्बे समय तक निर्माण कार्य को रोके रखा गया। परदे के पीछे हुई वार्ताओं में पप्पू अली को 7 लाख रुपये चुप रहने के एवज में देने का वादा हुआ, जिसमें से 3 लाख दे दिए गए। इसके बाद गत 21 जुलाई को जब सिंह सभा ने निर्माण शुरू किया तो पप्पू को बाकी 4 लाख का भुगतान भी कर दिया गया। यह कोर्ट में केस जीत चुके समुदाय की ओर से शहर में अमन और शान्ति बहाल रखने के लिए राजनैतिक ग़ुन्डे को दी गई फिरौती थी। 7 लाख मिलने के बाद पप्पू के मन में लालच आया और वह वादी अब्दुल वहाब को साथ लेकर 25 लाख की मांग करने लगा, तब गुरुद्वारा सिंह सभा ने 1 लाख और दिए। इतने पर भी पप्पू अली के शांत न होने पर गुरुद्वारा सिंह सभा ने सारी बात सहारनपुर के कुतुबशेर थाना इन्स्पेक्टर कुलदीप कुमार को बताकर मदद मांगी। कुलदीप कुमार ने पुलिसिया धौंस दिखाते हुए निर्माण कार्य रुकवा दिया और 2 लाख मिलने पर ही निर्माण कार्य चलने दिया। इसके बाद बाज़ी हाथ से निकलते देख पप्पू ने मामले को सांप्रदायिक रंग देते हुए पूरी प्लानिंग के साथ 25 जुलाई की रात गुरूद्वारे पर पथराव करवाया और सिक्ख समुदाय की दुकानों और मकानों को जलाया गया। इसके बाद ही दंगे का वह स्वरूप दिखाई दिया जिसे साम्प्रदयिक कहा जाता है। |
सवाल
यह है कि अगर मुआमला पूरी तरह अवैध वसूली का था तो दंगे को सांप्रदायिक
होने देने का दोषी कौन है? बात उत्तर प्रदेश के सहारनपुर की हो या भारत के
किसी और प्रांत की, दोषी मुख्य रूप से तीन दिखाई देते हैं — राजनेता, पीड़ित
होने की ग्रंथि से ग्रस्त स्वयं मुसलमान समुदाय और मीडिया।
उत्तर
प्रदेश में ताज़ा दौर में ऐसी घटनाएँ दो जगह हुईं। पहला मुरादाबाद ज़िले का
गाँव कांठ, जहाँ एक मंदिर से पुलिस द्वारा रमज़ान के दौरान लाउडस्पीकर
उतारने के मामले ने राजनैतिक रंग ले लिया और दूसरा सहारनपुर। दोनों जगहों
के राजनैतिक समीकरणों को देखेंगे तो कुछ बातें एक सी दिखाई देंगी। दोनों
जगह उपचुनाव होने वाले हैं। दोनों ही जगह का मतदाता पैटर्न ऐसा है कि
मुसलमान समुदाय के वोटों के ध्रुवीकरण से फ़ैसला पलट सकता है। दोनों ही जगह
मुस्लिम समुदाय सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के पाले में वोट देता आया है।
ऐसे
में सहारनपुर में दंगों के मास्टरमाइंड मुहर्रम अली पप्पू की मुख्यमंत्री
अखिलेश यादव के साथ खिंचवाई गई तस्वीरें बहुत कुछ बयां करती हैं। पप्पू को
मिलने वाला राजनैतिक संरक्षण दंगों के बढ़ते जाने के पीछे की कहानी साफ़ करता
है। कहने वाले यह भी कहते हैं कि अगर मामला इस तरह सामने न आता तो उस
क्षेत्र में समाजवादी पार्टी का विधायक उम्मीदवार पप्पू को बनना तय था।
यहाँ
पर उस सवाल का जवाब भी मिलता है कि दंगे वहीं क्यों होते हैं जहाँ मुस्लिम
आबादी अधिक है। ऐसी जगहों पर हुए दंगे राजनैतिक रूप से उन पार्टियों के हक़
में जाते हैं जो ख़ुद को मुसलामानों
का रहनुमा साबित करने पर दिन रात एक करती हैं। “आप असुरक्षित हैं, आपको
सुरक्षा चाहिए तो हमारी सरकार बनवाइए” का विज्ञापन मुसलमान वोटों के
ध्रुवीकरण में काम आता है। अन्यथा कोई कारण नहीं कि दंगे उन्हीं क्षेत्रों
में ज़्यादा हैं जहाँ मुसलमान आबादी 25 से 40 प्रतिशत के बीच है। इन इलाक़ों
में दंगों के बाद वोट की फ़सल का एक मुश्त कटना और एक झोली में गिरना दंगों
का मुख्य कारण है। किसी भी दंगे के बाद दोषी को पहचानने में सस्ते जासूसी
उपन्यासों में क़त्ल के बाद उठने वाले साधारण से सवाल से मदद मिल सकती है —
“इस क़त्ल से फायदा किसे है?”
एक राजनैतिक ग़ुन्डे
के पीछे लगकर सांप्रदायिक सौहार्द्य बिगाड़ने वाली भीड़ नासमझ और भोले लोगों
का जमावड़ा नहीं हो सकती। हालांकि भीड़ के कृत्य के पीछे कोई सोची-समझी
साज़िश है, यह मानने वालों से भी मैं सहमत नहीं हूँ। अशिक्षा, बेरोज़गारी,
पीड़ित होने का एक हद तक झूठा भाव पप्पू जैसे शातिर दिमाग़ लोगों के लिए
उपयुक्त अवसर पैदा करता है। इसके लिए जहाँ एक ओर सरकारें ज़िम्मेदार हैं जो
मुस्लिम समुदाय को एक कुटिल रणनीति के तहत शिक्षा और जागरूकता से दूर रखती
हैं। अन्यथा मदरसों को करोड़ों की सरकारी सहायता देने वाली सरकारें क्या
मदरसों में उपयुक्त और एक समान पाठ्यक्रम तक लागू नहीं करवा सकतीं जैसा कि
अन्य विद्यालयों में हो रहा है? यह एक छोटा, शुरुआती मगर महत्वपूर्ण क़दम
साबित हो सकता है जिससे वैचारिक रूप से अलग-थलग पड़ा हुआ मुस्लिम समुदाय देश
की बहुसंख्यक तबक़े के साथ एक धरातल पर आये। वैचारिक समानता कई समस्याओं का
अंत हो सकती है।
मुख्यधारा के भारतीय और अधिकांश मुसलामानों के बीच वैचारिक असमानता के लिए केंद्र, राज्य और अब तक की सभी सरकारें दोषी हैं। पिछले 30 साल में गठबंधन की राजनीति के कारण लगभग हर पार्टी सत्ता का स्वाद चख चुकी है।
मगर यह केवल सत्ता का स्वाद चखने तक ही सीमित रहा, सुधार की कोई गुंजाइश
अभी भी दिखाई नहीं देती। दूसरी ओर अशिक्षा, बेरोज़गारी और वोट-बैंक की
राजनीति से निकलने के लिए कोई बड़ी कोशिश मुसलमान समुदाय की ओर से दिखाई
देती हो ऐसा भी नहीं है। मुसलमान युवाओं को समझना होगा कि ख़ुद को पीड़ित के
तौर पर दिखाते रहने से कहीं बेहतर है कि अपने पैरों पर खड़ा हुआ जाए क्योंकि
बेहतर भविष्य का सफ़र यहीं से शुरू होगा।
अंत
में सबसे बड़े दोषी के तौर पर मीडिया सामने आता है जो 24 घंटे और सबसे पहले
ख़बर देने के जोश में ख़बरों की जाँच-पड़ताल करने के बजाय केवल सनसनी पैदा
करने वाले टीआरपी के लालची लोगों का समूह बनता जा रहा है। मीडिया का दोष
इसलिए भी बढ़ जाता है कि यह समाज के शक्तिसंपन्न, बुद्धिजीवी और तमाम बाज़ारू
दबावों से परे खड़े लोगों का एक समूह है जिसकी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह
हर बार यह समूह ख़ुद लगाता है। सहारनपुर दंगे में भी यही हुआ। मीडिया ने
मामले की असली पड़ताल करने के बजाय मुसलमान समुदाय को पीड़ित के तौर पर
दिखाना शुरू कर दिया। यही कई अन्य मामलों में भी दिखाई देता है जहाँ साधारण
टकराव, बहस, अंतर्विरोध की घटना को सांप्रदायिक रंग दे दिया जाता है। क्या
वाक़ई मीडिया की ज़िम्मेदारी केवल ख़बर चलाने तक ही सीमित है या उस ख़बर के
प्रभाव को देखना भी उसकी ज़िम्मेदारी होनी चाहिए? अगर वाक़ई केवल ख़बर चलाना
ही मीडिया की ज़िम्मेदारी है तो ईद के दिन ईराक़ के आतंकवादी संगठन ISIS के
समर्थन में कश्मीर में होने वाला प्रदर्शन या कुछ कट्टरपंथियों के दबाव में
हिंदुओं की धार्मिक यात्रा पर कश्मीर सरकार के द्वारा लगने वाला प्रतिबन्ध
भी ख़बर बन जाना चाहिए — ख़ास तौर पर इस तथ्य के प्रकाश में कि कश्मीर में
हिन्दू अल्पसंख्यक हैं। मीडिया में रेगुलेटरी अथॉरिटी की जरूरत अब शिद्दत
से महसूस की जा रही है। सेल्फ़-रेगुलेशन जैसे ढकोसले को मानने की कोई इच्छा
आम दर्शकों और पाठकों में दिखाई नहीं देती। मीडिया से जुड़े लोगों को समझना
होगा कि पत्रकारिता एक ऐसी कला है जिसमें वर्तमान की घटनाओं से अलग-अलग
रंगों को चुनते हुए भविष्य की बेहतरीन तस्वीर तैयार की जाती है। केवल हरे
रंग से रंगे भविष्य के टुकड़े को कोई तस्वीर कह पायेगा इसमें मुझे शक है। एक
समुदाय को पीड़ित के तौर पर दिखाना सनसनी तो पैदा करता है, पत्रकारिता
नहीं।
इन
तमाम घटनाओं, व्याख्याओं व विश्लेषणों के बीच उस ख़तरे को भी समझना ज़रूरी
है जो हमारे समाज को बाँट रहा है। राजनीति और मीडिया में व्याप्त तथाकथित
सेकुलरवाद लगातार देश को साम्प्रदायिकता की ओर धकेल रहा है। सेकुलरिज़्म और
आहत भावनाओं की राजनीति के बीच यह भी समझना आवश्यक है कि अति किसी भी भावना
की बुरी होती है और यह छद्म-धर्मनिरपेक्षता कहीं उस बहुसंख्यक तबक़े को
सांप्रदायिक न बना दे जो लगातार चोर न होते हुए भी चोर कहा जाता है। ख़तरा
इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि पहले जो दंगे शहरों और नगरों की परिघटना माने
जाते थे वहीं अब ये गाँव तक भी अपनी पहुँच बनाने में कामयाब रहे हैं, जहाँ
आपसी सौहार्द को तोड़ना अधिक मुश्किल होता है लेकिन एक बार टूटने पर कटुता
लम्बे समय तक बनी रहती है, जो राजनैतिक रूप से अधिक फ़ायदेमंद है। देश न
भगवा से बनेगा और न हरे से। तिरंगे में दोनों रंगों का अपना महत्त्व* है —
इसे समझना होगा, अन्यथा जैसा कि शुरुआत में ही कहा जा चुका है कि भविष्य
धुंधला नजर आता है क्योंकि कोई भी राजनैतिक, सामाजिक, व्यावसायिक (पढ़ें
मीडिया) ताक़त इसे रोकने में कोई दिलचस्पी लेती नहीं दिख रही।
* संपादक की ओर से
— मोहनदास करमचंद गाँधी ने 1921 में यह इच्छा व्यक्त की थी कि कांग्रेस का
कोई ध्वज हो। इसके लिए कई डिज़ाइन सुझाए गए। बदरुद्दीन तय्यब्जी की पत्नी
सुरैया तय्यबजी का सुझाव मंज़ूर हुआ। पर लोगों की हर रंग में किसी मज़हब को
ढूंढ निकालने की अस्वस्थ प्रवृत्ति देखी गई। तब बीच की सफ़ेद पट्टी यह
दर्शाने के लिए जोड़ी गई कि यह सभी मतावलंबियों का समावेश है चूँकि विज्ञान
यह कहता है कि सभी रंगों के मिश्रण से श्वेत बनता है। फिर कांग्रेस की ओर
से यह स्पष्टीकरण दिया गया कि भगवा वीरता और त्याग, सफ़ेद शांति एवं सत्य और
हरा विश्वास तथा शौर्य का प्रतीक है, और इन रंगों का किसी मज़हब से कोई
ताल्लुक़ नहीं। स्वतंत्रता के बाद इस झंडे को जब राष्ट्रीय ध्वज में
परिवर्तित किया गया तब चरखे की जगह अशोक स्तम्भ के चक्र ने ले ली।
Source: http://www.sirfnews.com/2013-05-21-06-43-17/%E0%A4%86%E0%A4%82%E0%A4%A7%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%A8-%E0%A4%AC%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%B0.html
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