सरकार
की रिपोर्ट आई है कि विदेशी धन से चलने वाले देशी एनजीओ भारत के आर्थिक
विकास के लिए ख़तरा हैं. विकास की परिभाषा क्या है, विकास का सही रास्ता
क्या है, विकास के लिए सही नीतियां क्या हैं, यह सब बहस का मुद्दा है. वैसे
भी, विदेशी फंड से संचालित एनजीओ को महज आर्थिक ख़तरा बताना पर्याप्त नहीं
है, क्योंकि यह सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं है. विदेशी धन और संगठनों
द्वारा संचालित इन एनजीओ का राजनीतिक हस्तक्षेप भारत के प्रजातंत्र और
संप्रभुता पर सबसे बड़ा ख़तरा है. ये देश की अखंडता के लिए भी ख़तरा बन सकते
हैं. सवाल यह है कि क्या विदेशी धन से चलाए जाने वाले आंदोलनों और संगठनों
को देश की राजनीति में हस्तक्षेप करने की छूट दी जा सकती है? क्या अमेरिकी
खुफिया एजेंसी सीआईए द्वारा प्रायोजित संगठनों को देश में राजनीति करने की
छूट दी जा सकती है? क्या विदेशी एजेंसियों के पैसों से देश में चुनाव लड़ने
की छूट दी सकती है? अगर पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित अलगाववादी आंदोलन ग़लत
है, अगर नक्सली आंदोलन में चीन के खुफिया विभाग द्वारा भेजे गए पैसों का
इस्तेमाल ग़लत है, तो यह कहां तक जायज़ है कि देश में अमेरिका की खुफिया
एजेंसी द्वारा भेजे गए पैसों का इस्तेमाल जनांदोलनों में हो, राजनीति में
हो और चुनाव में हो? सवाल तो यह है कि विदेशी फंड लेने वाले लोग सोनिया
गांधी की नेशनल एडवाइजरी काउंसिल तक कैसे पहुंच गए? क्या यह मान लिया जाए
कि भारत के सर्वोच्च सत्ता संस्थानों में विदेशी एजेंसियों का मिशन पूरा हो
चुका है? ऐसे में, सवाल यह है कि केंद्र सरकार सब कुछ जानते हुए भी इस
मामले में चुप क्यों रही?
खुफिया एजेंसियां और विदेशी ताक़तें दूसरे देशों में हमेशा गुप्त तरी़के से काम करती हैं. ख़ुफिया एजेंसियां लोगों से अपना काम भी करा लेती हैं और उनके लिए काम करने वालों को यह पता भी नहीं चलता कि वे किसी विदेशी साज़िश का हिस्सा बन चुके हैं. यह तरीक़ा दुनिया की ख़राब से ख़राब खुफिया एजेंसियां अपनाती हैं. फिर अमेरिका, इज़रायल, चीन और दूसरे बड़े देशों की एजेंसियां क्या करती होंगी, यह तो सोचा तक नहीं जा सकता है. दुनिया भर में सामाजिक संगठनों, एनजीओ एवं रिसर्च फाउंडेशन के नाम पर किस तरह साज़िश होती है और लोगों को गुमराह किया जाता है, मैं उसका एक उदाहरण देता हूं. साठ के दशक में अमेरिका में ड्रग्स का फैलाव हुआ. उसने तेज़ी से नौजवानों को अपने जाल में जकड़ना शुरू किया. ड्रग्स यानी नशीली दवाओं के कई प्रकार सामने आए, लेकिन नौजवान उसमें उतनी तेज़ी से नहीं फंसे, जितनी तेज़ी से वहां सक्रिय ताक़तवर ड्रग्स माफिया चाहता था. सरकार भी चेती और उसने सख्ती कर दी. परिणाम स्वरूप ड्रग्स का फैलाव थोड़ा धीमा हो गया. ड्रग्स के कारोबार का विरोध करने के लिए वहां कई सामाजिक संगठन खड़े हो गए. विश्वविद्यालयों और बाज़ारों में होर्डिंग लगाए गए कि ड्रग्स ख़तरनाक है. इसे लेकर वहां सेमिनार होने लगे, जिनके ज़रिये यह बताया गया कि नशीली दवाएं ख़तरनाक हैं और उन्हें लेने वाला सपनों की दुनिया में चला जाता है. थोड़ी देर के लिए वह अपने वर्तमान से कट जाता है और संपूर्ण मुक्ति की अवस्था में पहुंच जाता है. वहां ऐसी भाषा इस्तेमाल की जाने लगी कि सामाजिक व्यवस्था से विद्रोह करने के नाम पर नशीली दवाएं लेना सही नहीं है. ड्रग्स विरोधी आंदोलनकारी यह भी बताते थे कि नशे की गोली या इंजेक्शन लेने पर कैसा महसूस होता है, नशे की गोलियां और इंजेक्शनों का इस्तेमाल किस मात्रा में ज़्यादा ख़तरनाक है. संपूर्ण अमेरिका और यूरोप इन सेमिनारों, सभाओं एवं सम्मेलनों के ज़रिये ड्रग्स के दुष्परिणामों से परिचित हो गया.
वर्ष 1985 में एक नया ख़ुलासा हुआ और पता चला कि तमाम सामाजिक संगठन और रिसर्च फाउंडेशन ड्रग्स माफिया द्वारा संचालित थे. चूंकि ड्रग्स माफिया ने एनजीओ खड़े कर दिए और उन्हें सभाओं एवं सेमिनारों के नाम पर फंड करना शुरू कर दिया, लिहाज़ा उन्होंने ड्रग्स विरोध के नाम पर ड्रग्स का प्रचार शुरू कर दिया. जिन लोगों को ड्रग्स के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, वे भी उससे परिचित हो गए. इस तरह अमेरिका और यूरोप में ड्रग्स का यह कारोबार तीन सौ गुना बढ़ गया. सरकार समझ ही नहीं पाई कि उसकी नाक के नीचे यह ग़ैर क़ानूनी धंधा कैसे बढ़ गया. पुलिस-प्रशासन और राजनीति से जुड़े लोग इन माफियाओं से डरने लगे. यही वजह है कि आज अमेरिका और यूरोप में सरकार के बाद दूसरी बड़ी ताक़त इन ड्रग्स माफियाओं की है. शायद यही कारण है कि इन माफियाओं पर हाथ डालना वहां की सरकारों के वश में भी नहीं है.
कहीं ऐसा तो नहीं कि भारत में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों, जल-जंगल-ज़मीन के आंदोलनों, लोकपाल आंदोलन और व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई किसी विदेशी एजेंसी की साज़िश का हिस्सा हैं? कहीं यह नव-उदारवादी पूंजीवाद को बढ़ावा देने के लिए पुराने समाजवादी-प्रजातांत्रिक संस्थानों पर कुठाराघात करने की साजिश तो नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं कि जाने-अनजाने में देश के समाजसेवी एवं आंदोलनकारी अमेरिकी पूंजीवाद की साज़िश का हिस्सा बन गए हों और उन्हें पता तक नहीं है? क्या भारत भी इस तरह की साज़िश का शिकार हो गया है? भ्रष्टाचार और व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर चल रहे आंदोलन स्वत: स्फूर्त हैं या फिर किसी विदेशी खुफिया एजेंसी की साज़िश का हिस्सा हैं? क्या ये सब विदेशी पैसों से चलाए जा रहे हैं? अगर इनका संचालन विदेशी पैसों से हो रहा है, तो यह पैसा कौन दे रहा है? क्या देश में चल रहे एनजीओ और जनांदोलन विदेशी एजेंटों के इशारे पर काम कर रहे हैं? क्या इस देश में आंदोलन के नाम पर अराजकता फैलाना विदेशी साज़िश का हिस्सा है? ये सारे सवाल इसलिए भी उठते हैं, क्योंकि पिछले बीस सालों के दौरान देश में जिन-जिन आंदोलनों का नेतृत्व विदेशी फंड से संचालित एनजीओ ने किया, वे सफल नहीं हुए और बीच रास्ते में ही टूटकर बिखर गए (पूरा विवरण पढ़िए पेज 4 पर). ऐसे कई सवाल हैं, जिन्हें जानना बेहद ज़रूरी है. ग़ौरतलब है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में कई ऐसे उम्मीदवार मैदान में उतरे, जो विदेशी फंड की मदद से अपने एनजीओ चलाते हैं. बदलाव के नाम पर उनका एकमात्र मक़सद देश में अस्थिर सरकार बनाने और अराजकता फैलाने का है. फंडिंग के ज़रिये पूरी दुनिया में राजनीतिक अस्थिरता पैदा करने की अमेरिका एवं उसकी खुफिया एजेंसी सीआईए की नीति को कल्चरल कोल्ड वार का नाम दिया गया है. राजनीति और सरकारों का एनजीओकरण क्या देश को किसी कल्चरल कोल्ड वार की ओर ले जा रहा है? वास्तव में यहां पर उद्देश्य ग़ैर सरकारी संगठनों की महत्ता, उनके काम या उनके अस्तित्व पर सवाल खड़ा करना नहीं है, बल्कि हमारा मक़सद स़िर्फ और स़िर्फ उस ख़तरे से आगाह करना है, जिसे दान के नाम पर देश के भीतर पैदा किया जा सकता है.
वर्ष 1976 में इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी ने एक क़ानून बनाया, जिसका नाम है फॉरेन कंट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट. 9 मार्च, 1976 को जब राज्यसभा में यह क़ानून पारित किया जा रहा था, तब बहस के दौरान अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए का नाम 30 बार लिया गया. इसके अलावा, इस क़ानून के कई ख़तरों से भी अवगत कराया गया. इसी क़ानून के तहत आज देश के सामाजिक संगठनों को विदेशी धन मिल रहा है. पिछले कुछ वर्षों से समाजसेवा के नाम पर धड़ल्ले से विदेशी धन भारत भेजा जा रहा है. इस धन का इस्तेमाल लोगों में असंतोष पैदा करने, आंदोलन करने, व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर राजनीतिक वर्ग के ख़िलाफ़ माहौल तैयार करने और राजनीतिक प्रचार-प्रसार में किया जा रहा है. ये गतिविधियां देश की आंतरिक सुरक्षा और एकता के लिए ख़तरनाक हैं. समाजसेवी संस्थाओं के नाम पर इस देश में कौन सा गोरखधंधा चल रहा है, यह सरकार को अच्छी तरह पता है. चुनाव से ठीक पहले गृह मंत्रालय की तरफ़ से एक बयान आया. यह बयान से ज़्यादा देश के लिए चेतावनी है. गृह मंत्रालय ने ख़ुलासा किया कि भारत में कई ग़ैर सरकारी संगठन हवाला, काले धन के कारोबार और आतंकवादियों को धन मुहैय्या कराने के काम में संलिप्त हैं. गृह मंत्रालय के मुताबिक़, देश में विदेशी धन लेने के लिए अधिकृत एनजीओ की संख्या 43,527 है, जिनमें से 19,000 से ज़्यादा एनजीओ ने अपनी आय और व्यय का ब्यौरा नहीं दिया है. हैरत की बात यह है कि सरकार सब कुछ जानते हुए भी ख़ामोश बैठी रही.
एक रिपोर्ट के मुताबिक़, पिछले तीन वर्षों में ग़ैर सरकारी संगठनों को मिलने वाले विदेशी फंड की राशि सालाना 11,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा है. आश्चर्य की बात यह है कि विदेशी फंड पाने वाले 19,000 एनजीओ अपने फंड का इस्तेमाल देश में कहां, क्यों और किस उद्देश्य से कर रहे हैं, यह सरकार को पता नहीं है. नई सरकार को सबसे पहले इन संगठनों की गतिविधियों पर एक श्वेत पत्र लाना चाहिए. विदेशी धन के इस्तेमाल में पारदर्शिता और जवाबदेही तय करने के लिए क़दम उठाने चाहिए. अगर ये संगठन विदेशी पैसों से देश में आंदोलन और परिवर्तन के नाम पर विदेशी एजेंडे पर काम कर रहे हैं, तो यकीन मानिए, देश में अनर्थ हो जाएगा. वैसे शक करने की वजह यह है कि जब अन्ना हज़ारे ने देश में भ्रष्टाचार और पारदर्शिता के लिए जनलोकपाल आंदोलन शुरू किया था, तब इन लोगों ने अपने जन लोकपाल विधेयक के ड्राफ्ट में विदेशी फंड से चलने वाले एनजीओ यानी ग़ैर सरकारी संगठनों एवं सामाजिक संगठनों को जन लोकपाल के दायरे से बाहर क्यों रखा था?
अगर यह अमेरिकी खुफिया एजेंसी की साज़िश है, तो इसका मतलब यह है कि भारत सरकार की सबसे शक्तिशाली कमेटी में सीआईए अपने एजेंट बैठाने में क़ामयाब हो गई. इस बात की तहक़ीक़ात होनी चाहिए कि जो लोग नेशनल एडवाइजरी काउंसिल में शामिल हुए हैं, उनका विदेशी फंड से चलने वाले संगठनों से क्या रिश्ता है? इस बात की भी जांच होनी चाहिए कि अमेरिका या जर्मनी से इन्होंने अब तक कितने पैसे लिए हैं. ऐसे में सवाल यह उठता है कि जिन सामाजिक संगठनों की उत्पत्ति और लालन-पालन विदेशी धन से हो रहा है और जो विदेशी एजेंडे को देश में लागू करने का काम करते रहे हैं, क्या उनके ऊपर कोई कार्रवाई नहीं होनी चाहिए?
दरअसल, नव-उदारवादी व्यवस्था में उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के चरित्र में बदलाव आया है. अब उन्हें सेना भेजने की ज़रूरत नहीं पड़ती है. वे दूसरे देशों में अराजकता फैलाकर, लोगों को आंदोलित करके, नियमों में बदलाव करके और राजनीतिक दबाव बनाकर स्थिति को अपने पक्ष में करने की रणनीति पर काम करते हैं. अफ्रीका, लैटिन अमेरिका समेत दुनिया के कई इलाक़ों में ऐसा हो चुका है. कई देश इस तरह की साज़िश से निपटने में नाक़ाम रहे और तबाह हो गए. साम्राज्यवादी एवं उपनिवेशी ताक़तों ने दुनिया भर में एनजीओ और सामाजिक संगठनों को अपना हथियार बना लिया है. इस मामले में उनकी रणनीति साफ़ है, क्योंकि वे आम लोगों को ही सरकार के ख़िलाफ़ खड़ा कर देते हैं. क्या भारत भी ऐसी किसी साज़िश का शिकार हो गया है? हक़ीक़त यह है कि विदेशी एजेंसियों ने पहले एनजीओ को एक दबाव समूह के रूप में खड़ा किया. इन संगठनों ने भारत में हर जगह निराशा और असंतोष का माहौल तैयार किया. सरकारी तंत्र और देश की व्यवस्था के ख़िलाफ़ लोगों को भड़काने का काम किया. दरअसल, विदेशी धन से संचालित संगठनों ने ऐसा माहौल पैदा किया, जिससे लोग देश के राजनीतिक नेतृत्व और राजनीतिक सत्ता से घृणा करने लगें. इसमें कोई शक नहीं है कि राजनीतिक दलों और नेताओं ने भी अपने व्यवहार से इन संगठनों को राजनीतिक वर्ग के ख़िलाफ़ प्रचार करने का एक अच्छा मौक़ा दिया है.
पिछले तीन-चार वर्षों के दौरान दो समानांतर घटनाएं हुईं. एक तो सामाजिक संगठनों को विदेशों से ज़्यादा पैसा मिलने लगा और दूसरे यह कि देश में हर जगह भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन शुरू हो गए. रोज़मर्रा की समस्याओं से परेशान लोग सड़कों पर उतर आए. आंदोलन की सफलता से खुश होकर सामाजिक संगठनों ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए दूसरा क़दम उठाया. इन ग़ैर सरकारी संगठनों ने ख़ुद की महत्वाकांक्षा छिपाए रखने के लिए आंदोलनों को ज़रिया बनाया. जब अन्ना आंदोलन हुआ, तो चुनावी राजनीति के नाम पर अन्ना ने ख़ुद को इससे अलग कर लिया और वह आंदोलन की नई राह बनाने में जुट गए. लेकिन, जिनका लक्ष्य आंदोलन के नाम पर अपनी सियासी ज़मीन तैयार करना था, उन्होंने अलग पार्टी बना ली. इस पार्टी से लोकसभा चुनाव लड़े उम्मीदवारों की सूची देखें, तो पता चलता है कि जिनके संगठन विदेशी धन से संचालित होते हैं, वे सभी लोग इसमें शामिल हैं.
एनजीओ की दुनिया का हर बड़ा नाम इस पार्टी में है. हैरानी की बात तो यह है कि जो लोग समाजसेवा के नाम पर सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार समिति में थे, वे भी आज आम आदमी पार्टी के साथ हैं. यही लोग मौजूदा व्यवस्था और राजनीतिक वर्ग के ख़िलाफ़ देश में अराजकता फैलाने की पैरवी करते हैं. मज़ेदार बात यह है कि परिवर्तन के नाम पर देश में जो कुछ हो रहा है, वह फोर्ड फाउंडेशन की वेबसाइट में साफ़-साफ़ लिखा है. कहने का मतलब यह कि ये तमाम सामाजिक संगठन फोर्ड फाउंडेशन के एजेंडे पर काम कर रहे हैं. हमारे देश में फोर्ड फाउंडेशन से पैसा लेने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं और संगठनों को काफी इज्जत मिलती है, उन्हें अवॉर्ड दिए जाते हैं. जबकि यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि फोर्ड फाउंडेशन अमेरिका की खुफिया एजेंसी सीआईए की एक शाखा के रूप में काम करती है और वह अमेरिकी विदेश नीति का अहम हिस्सा है. सवाल यह है कि जो लोग और संगठन फोर्ड का एजेंडा देश पर थोपना चाहते हैं, वे दरअसल अमेरिकी विदेश नीति को भारत में लागू करने वाले एजेंट के रूप में काम कर रहे हैं.
वैसे तो देश में हर किसी को राजनीतिक दल बनाने और राजनीति करने का अधिकार है, लेकिन चिंता तब होती है, जब ये चुनाव तो लड़ते हैं, लेकिन यह नहीं बताते कि उनके पास कोई आर्थिक नीति नहीं है, विदेश नीति नहीं है और रक्षा नीति नहीं है. यह एक ख़तरनाक स्थिति है. ये संगठन वर्तमान व्यवस्था से नाराज़ लोगों का गुस्सा भड़का कर व्यवस्था के ख़िलाफ़ राजनीति को हवा देते हैं. लोग इन्हें समर्थन तो दे रहे हैं, लेकिन अगर कहीं ये उन्हीं नीतियों और विचारधाराओं को देश में लागू करने लगे, जिनके लिए इन्हें फंड दिया जा रहा है, तो अनर्थ हो जाएगा. कुछ समय पहले एक अंग्रेजी दैनिक ने ख़ुलासा किया था कि ह्यूमैनिस्टिक इंस्टीट्यूट फॉर को-ऑपरेशन विद द डेवलपिंग कंट्रीज (हिवोस) ने गुजरात में अप्रैल 2008 से अगस्त 2012 तक कुछ एनजीओ को 13 लाख यूरो (तक़रीबन 10 करोड़ रुपये) दिए, जिनमें से कुछ चर्चित ग़ैर सरकारी संगठन मसलन, दिशा को दो लाख चौबीस हज़ार यूरो, गुजरात खेत विकास परिषद को दो लाख सात हज़ार यूरो, सफर को एक लाख चौरासी हज़ार यूरो, महिती को एक लाख चार हज़ार यूरो, स्वाति को पचासी हज़ार यूरो और उठान को तिरसठ हज़ार यूरो दिए गए. हिवोस दिल्ली और मुंबई स्थित कई एनजीओ को भी आर्थिक मदद करता है. मुंबई बेस्ड तीस्ता सीतलवाड़ द्वारा संचालित एनजीओ और शबनम हाशमी के नेतृत्व में संचालित दिल्ली स्थित एनजीओ अनहद को भी हिवोस ने चार हज़ार यूरो दिए. ऐसे में सवाल यह है कि आख़िर यह धनराशि क्यों दी गई?
चुनाव सुधार की दिशा में काम करने वाली संस्था एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म (एडीआर) आईआईएम बंगलुरु के डीन रहे त्रिलोचन शास्त्री के नेतृत्व में चलाई जा रही है. संस्था की वेबसाइट पर कहा गया है कि हमारी कोशिश है कि हम देश में एक पारदर्शी, प्रभावशाली और उत्तरदायी सरकार लाने के लिए लोगों को जागरूक करें. एडीआर को बड़े पैमाने पर फंड फोर्ड फाउंडेशन की ओर से मिलता है. 2009 और 2011 में एडीआर को फोर्ड की ओर से दो-दो लाख डॉलर का फंड मिला था. इसका नतीजा यह है कि हमने इसके जरिये लोकसभा और विधानसभाओं की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा कर दिया. यह बात सही है कि लोकसभा और विधानसभाओं में अपराधी या जिन पर अपराध का मुक़दमा चल रहा है, वे घुस जाते हैं, लेकिन इसमें सुधार की ज़रूरत है. लेकिन, मीडिया और सामाजिक संगठनों ने एडीआर के रिसर्च के जरिये संसद और विधानसभाओं की विश्वसनीयता को कठघरे में खड़ा कर दिया और राजनीति को ही बदनाम कर दिया. अब जब संसद, विधानसभाओं और जनप्रतिनिधियों पर ही लोगों का भरोसा नहीं होगा, तो क्या देश में प्रजातंत्र बच पाएगा? भारत के प्रजातंत्र पर कुठाराघात स़िर्फ एडीआर ही नहीं, बल्कि विदेशी फंड से संचालित कई संगठन अपने-अपने तरीके से कर रहे हैं.
क़ानूनी तरी़के से विदेशी योगदान नियमन क़ानून (एफसीआरए) के तहत देश में आने वाली राशि 1993-94 में 1865 करोड़ रुपये थी, जो 2007-08 में बढ़कर 9,663 करोड़ रुपये यानी पांच गुनी से भी ज़्यादा हो गई. इस क़ानून के तहत पंजीकृत संस्थाओं की संख्या भी इस अवधि में 15,039 से बढ़कर 34,803 यानी दोगुनी से भी ज़्यादा हो गई. हालांकि इनमें से 46 प्रतिशत संस्थाओं ने 2007-08 में अपना लेखा-जोखा गृह मंत्रालय को नहीं दिया. 2011 में सरकार ने एक महीने में ही 4,139 एनजीओ पर विदेश से किसी प्रकार की सहायता राशि लेने संबंधी रोक लगाई है. इससे पहले केंद्रीय गृह मंत्रालय ने कहा कि 2009-10 में विदेश से आने वाले कुल 10,000 करोड़ रुपये में से अधिकांश रकम संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और यूरोप से आई थी. गृह मंत्रालय का 42 पृष्ठों का यह विश्लेषण कहता है कि देश में 14,233 एनजीओ ने विदेशी मदद स्वीकार की है और विदेश से इनके लिए आने वाली कुल रक़म 10,337.59 करोड़ रुपये है. मदद के लिए आए इन पैसों का बड़ा हिस्सा (1815.91 करोड़ रुपये) दिल्ली पहुंचा.
इन एनजीओ के पास जो रक़म विदेश से आ रही है, उसमें संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की हिस्सेदारी सबसे ज़्यादा है. उसके बाद जर्मनी और यूके का नंबर आता है. ये तीन देश पिछले कई सालों से एनजीओ की दानदाताओं की सूची में टॉप पर हैं. भारत की ग़रीबी, अशिक्षा एवं स्वास्थ्य को लेकर इन देशों की धार्मिक संस्थाओं के मन में उपजे प्रेम ने गृह मंत्रालय को सतर्क कर दिया है. मंत्रालय यह समझने की कोशिश में जुटा है कि इस मदद का उद्देश्य वास्तव में समाज सेवा ही है या कुछ और? इन तीन देशों के अलावा, भारतीय एनजीओ को कुछ अन्य देशों से भी मदद मिल रही है. मदद करने वाले अन्य देशों में इटली, नीदरलैंड, स्पेन एवं स्विटजरलैंड आदि शामिल हैं. इसके साथ ही कनाडा, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया एवं यूएई भी भारतीय ग़ैर सरकारी संगठनों के बड़े मददगारों में शामिल हैं. सूचना का अधिकार क़ानून के तहत मांगी गई एक जानकारी के मुताबिक़, कबीर को 2007 से लेकर 2010 तक फोर्ड फाउंडेशन से 86,61,742 रुपये मिले हैं. इतना ही Aनहीं, कबीर को डच दूतावास से भी पैसे मिले हैं. आख़िर किसी दूसरे देश का दूतावास हमारे देश के किसी ग़ैर सरकारी संगठन को पैसा क्यों दे रहा है? डच दूतावास की गतिविधियों को भारत में हमेशा शक की निगाह से देखा गया है.
दरअसल, आज भारत कई तरह के ख़तरों के मुहाने पर खड़ा है. लोगों में सरकारी तंत्र के ख़िलाफ़ ज़बरदस्त गुस्सा है. यह एक नाज़ुक स्थिति है. सरकारी तंत्र में लोगों का विश्वास बढ़े, यह राजनीतिक वर्ग का पहला काम होना चाहिए, अन्यथा भारत विरोधी ताक़तों को मौक़ा मिल जाएगा. रही बात ग़ैर सरकारी संगठनों की, तो उनका कार्यक्षेत्र निर्धारित करना ज़रूरी है. ये संगठन सामाजिक क्षेत्र में काम करें. इन्हें शिक्षा, रोज़गार, पर्यावरण, स्वास्थ्य एवं ग्रामीण विकास आदि क्षेत्रों में काम करने की पूरी आज़ादी मिलनी चाहिए, लेकिन व्यवस्था से जुड़े सवालों पर विदेशी फंड से चलने वाले एनजीओ पर प्रतिबंध लगना चाहिए. प्रशासनिक, न्यायिक, विदेश नीति, सुरक्षा नीति एवं चुनाव सुधार जैसे गंभीर मुद्दों पर विदेशी एजेंसियों और उनके एजेंटों को शामिल करना देश के लिए ख़तरनाक है. इसमें कोई शक नहीं कि विदेशी फंड से संचालित एनजीओ विदेशी एजेंट हैं. ये एनजीओ उन्हीं देशों के एजेंडों को लागू करने पर आमादा रहते हैं, जिनसे ये पैसा लेते हैं. केंद्र में बनी नई सरकार की यह प्राथमिकता होनी चाहिए कि वह ऐसा क़ानून बनाए, जिससे भारत में विदेशी फंड के इस्तेमाल पर रोक लगे या उसमें पारदर्शिता आ सके और जवाबदेही तय हो सके. नई सरकार को उन ग़ैर सरकारी संगठनों के नाम भी सार्वजनिक करने चाहिए, जो विदेशी एजेंसियों से पैसा लेकर आंदोलन और राजनीति करते हैं. यह देश के लोगों का अधिकार है कि वे जान सकें कि किन-किन लोगों ने विदेशी एजेंट बनकर देश का सौदा किया है.
Source: http://www.chauthiduniya.com/2014/07/videshi-fund-sanchalit-gaer-sarkari-santhan-desh-ke-liye-khatra-hai.html#sthash.s10BJeYD.dpuf
खुफिया एजेंसियां और विदेशी ताक़तें दूसरे देशों में हमेशा गुप्त तरी़के से काम करती हैं. ख़ुफिया एजेंसियां लोगों से अपना काम भी करा लेती हैं और उनके लिए काम करने वालों को यह पता भी नहीं चलता कि वे किसी विदेशी साज़िश का हिस्सा बन चुके हैं. यह तरीक़ा दुनिया की ख़राब से ख़राब खुफिया एजेंसियां अपनाती हैं. फिर अमेरिका, इज़रायल, चीन और दूसरे बड़े देशों की एजेंसियां क्या करती होंगी, यह तो सोचा तक नहीं जा सकता है. दुनिया भर में सामाजिक संगठनों, एनजीओ एवं रिसर्च फाउंडेशन के नाम पर किस तरह साज़िश होती है और लोगों को गुमराह किया जाता है, मैं उसका एक उदाहरण देता हूं. साठ के दशक में अमेरिका में ड्रग्स का फैलाव हुआ. उसने तेज़ी से नौजवानों को अपने जाल में जकड़ना शुरू किया. ड्रग्स यानी नशीली दवाओं के कई प्रकार सामने आए, लेकिन नौजवान उसमें उतनी तेज़ी से नहीं फंसे, जितनी तेज़ी से वहां सक्रिय ताक़तवर ड्रग्स माफिया चाहता था. सरकार भी चेती और उसने सख्ती कर दी. परिणाम स्वरूप ड्रग्स का फैलाव थोड़ा धीमा हो गया. ड्रग्स के कारोबार का विरोध करने के लिए वहां कई सामाजिक संगठन खड़े हो गए. विश्वविद्यालयों और बाज़ारों में होर्डिंग लगाए गए कि ड्रग्स ख़तरनाक है. इसे लेकर वहां सेमिनार होने लगे, जिनके ज़रिये यह बताया गया कि नशीली दवाएं ख़तरनाक हैं और उन्हें लेने वाला सपनों की दुनिया में चला जाता है. थोड़ी देर के लिए वह अपने वर्तमान से कट जाता है और संपूर्ण मुक्ति की अवस्था में पहुंच जाता है. वहां ऐसी भाषा इस्तेमाल की जाने लगी कि सामाजिक व्यवस्था से विद्रोह करने के नाम पर नशीली दवाएं लेना सही नहीं है. ड्रग्स विरोधी आंदोलनकारी यह भी बताते थे कि नशे की गोली या इंजेक्शन लेने पर कैसा महसूस होता है, नशे की गोलियां और इंजेक्शनों का इस्तेमाल किस मात्रा में ज़्यादा ख़तरनाक है. संपूर्ण अमेरिका और यूरोप इन सेमिनारों, सभाओं एवं सम्मेलनों के ज़रिये ड्रग्स के दुष्परिणामों से परिचित हो गया.
वर्ष 1985 में एक नया ख़ुलासा हुआ और पता चला कि तमाम सामाजिक संगठन और रिसर्च फाउंडेशन ड्रग्स माफिया द्वारा संचालित थे. चूंकि ड्रग्स माफिया ने एनजीओ खड़े कर दिए और उन्हें सभाओं एवं सेमिनारों के नाम पर फंड करना शुरू कर दिया, लिहाज़ा उन्होंने ड्रग्स विरोध के नाम पर ड्रग्स का प्रचार शुरू कर दिया. जिन लोगों को ड्रग्स के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, वे भी उससे परिचित हो गए. इस तरह अमेरिका और यूरोप में ड्रग्स का यह कारोबार तीन सौ गुना बढ़ गया. सरकार समझ ही नहीं पाई कि उसकी नाक के नीचे यह ग़ैर क़ानूनी धंधा कैसे बढ़ गया. पुलिस-प्रशासन और राजनीति से जुड़े लोग इन माफियाओं से डरने लगे. यही वजह है कि आज अमेरिका और यूरोप में सरकार के बाद दूसरी बड़ी ताक़त इन ड्रग्स माफियाओं की है. शायद यही कारण है कि इन माफियाओं पर हाथ डालना वहां की सरकारों के वश में भी नहीं है.
कहीं ऐसा तो नहीं कि भारत में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों, जल-जंगल-ज़मीन के आंदोलनों, लोकपाल आंदोलन और व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई किसी विदेशी एजेंसी की साज़िश का हिस्सा हैं? कहीं यह नव-उदारवादी पूंजीवाद को बढ़ावा देने के लिए पुराने समाजवादी-प्रजातांत्रिक संस्थानों पर कुठाराघात करने की साजिश तो नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं कि जाने-अनजाने में देश के समाजसेवी एवं आंदोलनकारी अमेरिकी पूंजीवाद की साज़िश का हिस्सा बन गए हों और उन्हें पता तक नहीं है? क्या भारत भी इस तरह की साज़िश का शिकार हो गया है? भ्रष्टाचार और व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर चल रहे आंदोलन स्वत: स्फूर्त हैं या फिर किसी विदेशी खुफिया एजेंसी की साज़िश का हिस्सा हैं? क्या ये सब विदेशी पैसों से चलाए जा रहे हैं? अगर इनका संचालन विदेशी पैसों से हो रहा है, तो यह पैसा कौन दे रहा है? क्या देश में चल रहे एनजीओ और जनांदोलन विदेशी एजेंटों के इशारे पर काम कर रहे हैं? क्या इस देश में आंदोलन के नाम पर अराजकता फैलाना विदेशी साज़िश का हिस्सा है? ये सारे सवाल इसलिए भी उठते हैं, क्योंकि पिछले बीस सालों के दौरान देश में जिन-जिन आंदोलनों का नेतृत्व विदेशी फंड से संचालित एनजीओ ने किया, वे सफल नहीं हुए और बीच रास्ते में ही टूटकर बिखर गए (पूरा विवरण पढ़िए पेज 4 पर). ऐसे कई सवाल हैं, जिन्हें जानना बेहद ज़रूरी है. ग़ौरतलब है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में कई ऐसे उम्मीदवार मैदान में उतरे, जो विदेशी फंड की मदद से अपने एनजीओ चलाते हैं. बदलाव के नाम पर उनका एकमात्र मक़सद देश में अस्थिर सरकार बनाने और अराजकता फैलाने का है. फंडिंग के ज़रिये पूरी दुनिया में राजनीतिक अस्थिरता पैदा करने की अमेरिका एवं उसकी खुफिया एजेंसी सीआईए की नीति को कल्चरल कोल्ड वार का नाम दिया गया है. राजनीति और सरकारों का एनजीओकरण क्या देश को किसी कल्चरल कोल्ड वार की ओर ले जा रहा है? वास्तव में यहां पर उद्देश्य ग़ैर सरकारी संगठनों की महत्ता, उनके काम या उनके अस्तित्व पर सवाल खड़ा करना नहीं है, बल्कि हमारा मक़सद स़िर्फ और स़िर्फ उस ख़तरे से आगाह करना है, जिसे दान के नाम पर देश के भीतर पैदा किया जा सकता है.
वर्ष 1976 में इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी ने एक क़ानून बनाया, जिसका नाम है फॉरेन कंट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट. 9 मार्च, 1976 को जब राज्यसभा में यह क़ानून पारित किया जा रहा था, तब बहस के दौरान अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए का नाम 30 बार लिया गया. इसके अलावा, इस क़ानून के कई ख़तरों से भी अवगत कराया गया. इसी क़ानून के तहत आज देश के सामाजिक संगठनों को विदेशी धन मिल रहा है. पिछले कुछ वर्षों से समाजसेवा के नाम पर धड़ल्ले से विदेशी धन भारत भेजा जा रहा है. इस धन का इस्तेमाल लोगों में असंतोष पैदा करने, आंदोलन करने, व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर राजनीतिक वर्ग के ख़िलाफ़ माहौल तैयार करने और राजनीतिक प्रचार-प्रसार में किया जा रहा है. ये गतिविधियां देश की आंतरिक सुरक्षा और एकता के लिए ख़तरनाक हैं. समाजसेवी संस्थाओं के नाम पर इस देश में कौन सा गोरखधंधा चल रहा है, यह सरकार को अच्छी तरह पता है. चुनाव से ठीक पहले गृह मंत्रालय की तरफ़ से एक बयान आया. यह बयान से ज़्यादा देश के लिए चेतावनी है. गृह मंत्रालय ने ख़ुलासा किया कि भारत में कई ग़ैर सरकारी संगठन हवाला, काले धन के कारोबार और आतंकवादियों को धन मुहैय्या कराने के काम में संलिप्त हैं. गृह मंत्रालय के मुताबिक़, देश में विदेशी धन लेने के लिए अधिकृत एनजीओ की संख्या 43,527 है, जिनमें से 19,000 से ज़्यादा एनजीओ ने अपनी आय और व्यय का ब्यौरा नहीं दिया है. हैरत की बात यह है कि सरकार सब कुछ जानते हुए भी ख़ामोश बैठी रही.
एक रिपोर्ट के मुताबिक़, पिछले तीन वर्षों में ग़ैर सरकारी संगठनों को मिलने वाले विदेशी फंड की राशि सालाना 11,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा है. आश्चर्य की बात यह है कि विदेशी फंड पाने वाले 19,000 एनजीओ अपने फंड का इस्तेमाल देश में कहां, क्यों और किस उद्देश्य से कर रहे हैं, यह सरकार को पता नहीं है. नई सरकार को सबसे पहले इन संगठनों की गतिविधियों पर एक श्वेत पत्र लाना चाहिए. विदेशी धन के इस्तेमाल में पारदर्शिता और जवाबदेही तय करने के लिए क़दम उठाने चाहिए. अगर ये संगठन विदेशी पैसों से देश में आंदोलन और परिवर्तन के नाम पर विदेशी एजेंडे पर काम कर रहे हैं, तो यकीन मानिए, देश में अनर्थ हो जाएगा. वैसे शक करने की वजह यह है कि जब अन्ना हज़ारे ने देश में भ्रष्टाचार और पारदर्शिता के लिए जनलोकपाल आंदोलन शुरू किया था, तब इन लोगों ने अपने जन लोकपाल विधेयक के ड्राफ्ट में विदेशी फंड से चलने वाले एनजीओ यानी ग़ैर सरकारी संगठनों एवं सामाजिक संगठनों को जन लोकपाल के दायरे से बाहर क्यों रखा था?
वर्ष 1976 में इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी ने एक क़ानून बनाया, जिसका नाम है फॉरेन कंट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट. 9 मार्च, 1976 को जब राज्यसभा में यह क़ानून पारित किया जा रहा था, तब बहस के दौरान अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए का नाम 30 बार लिया गया. इसके अलावा, इस क़ानून के कई ख़तरों से भी अवगत कराया गया. इसी क़ानून के तहत आज देश के सामाजिक संगठनों को विदेशी धन मिल रहा है. पिछले कुछ वर्षों से समाजसेवा के नाम पर धड़ल्ले से विदेशी धन भारत भेजा जा रहा है. इस धन का इस्तेमाल लोगों में असंतोष पैदा करने, आंदोलन करने, व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर राजनीतिक वर्ग के ख़िलाफ़ माहौल तैयार करने और राजनीतिक प्रचार-प्रसार में किया जा रहा है.नब्बे के दशक में पहले राजीव गांधी ने और बाद में पीवी नरसिम्हा राव ने अर्थव्यवस्था में उदारीकरण के साथ ही ग़ैर सरकारी संगठनों को भी देश की नीतियों में पूरी तरह से जगह दे दी. इसी के साथ सिविल सोसायटी एवं ग़ैर सरकारी संगठन देश की व्यवस्था और सरकारी तंत्र में स्थापित होने लगे. पहले ये सामाजिक क्षेत्रों में काम करते थे और फिर धीरे-धीरे इन्होंने देश की आर्थिक नीतियों में अपनी दख़लंदाज़ी शुरू कर दी. नतीजतन, ये सरकार की नीतियों को भी प्रभावित करने लगे. आज ये प्रत्यक्ष रूप से राजनीति में उतर आए हैं और सत्ता पर क़ाबिज़ होने का ख्वाब देखने लगे हैं. यूपीए सरकार ने इन सामाजिक संगठनों को न स़िर्फ खाद-पानी दिया, बल्कि इन्हें अपने सिर-माथे पर भी बैठाया. यूपीए की चेयरपर्सन और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सरकार को नीतिगत सुझाव देने के लिए नेशनल एडवाइजरी काउंसिल का गठन किया. क्या नेशनल एडवाइजरी काउंसिल सीआईए की साज़िश का हिस्सा बन गई? अब यह पता नहीं कि जानबूझ कर या अनजाने में इस काउंसिल में ऐसे लोगों को शामिल किया गया, जिनका रिश्ता विदेशी फंड से चल रहे सामाजिक संगठनों से था.
अगर यह अमेरिकी खुफिया एजेंसी की साज़िश है, तो इसका मतलब यह है कि भारत सरकार की सबसे शक्तिशाली कमेटी में सीआईए अपने एजेंट बैठाने में क़ामयाब हो गई. इस बात की तहक़ीक़ात होनी चाहिए कि जो लोग नेशनल एडवाइजरी काउंसिल में शामिल हुए हैं, उनका विदेशी फंड से चलने वाले संगठनों से क्या रिश्ता है? इस बात की भी जांच होनी चाहिए कि अमेरिका या जर्मनी से इन्होंने अब तक कितने पैसे लिए हैं. ऐसे में सवाल यह उठता है कि जिन सामाजिक संगठनों की उत्पत्ति और लालन-पालन विदेशी धन से हो रहा है और जो विदेशी एजेंडे को देश में लागू करने का काम करते रहे हैं, क्या उनके ऊपर कोई कार्रवाई नहीं होनी चाहिए?
दरअसल, नव-उदारवादी व्यवस्था में उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के चरित्र में बदलाव आया है. अब उन्हें सेना भेजने की ज़रूरत नहीं पड़ती है. वे दूसरे देशों में अराजकता फैलाकर, लोगों को आंदोलित करके, नियमों में बदलाव करके और राजनीतिक दबाव बनाकर स्थिति को अपने पक्ष में करने की रणनीति पर काम करते हैं. अफ्रीका, लैटिन अमेरिका समेत दुनिया के कई इलाक़ों में ऐसा हो चुका है. कई देश इस तरह की साज़िश से निपटने में नाक़ाम रहे और तबाह हो गए. साम्राज्यवादी एवं उपनिवेशी ताक़तों ने दुनिया भर में एनजीओ और सामाजिक संगठनों को अपना हथियार बना लिया है. इस मामले में उनकी रणनीति साफ़ है, क्योंकि वे आम लोगों को ही सरकार के ख़िलाफ़ खड़ा कर देते हैं. क्या भारत भी ऐसी किसी साज़िश का शिकार हो गया है? हक़ीक़त यह है कि विदेशी एजेंसियों ने पहले एनजीओ को एक दबाव समूह के रूप में खड़ा किया. इन संगठनों ने भारत में हर जगह निराशा और असंतोष का माहौल तैयार किया. सरकारी तंत्र और देश की व्यवस्था के ख़िलाफ़ लोगों को भड़काने का काम किया. दरअसल, विदेशी धन से संचालित संगठनों ने ऐसा माहौल पैदा किया, जिससे लोग देश के राजनीतिक नेतृत्व और राजनीतिक सत्ता से घृणा करने लगें. इसमें कोई शक नहीं है कि राजनीतिक दलों और नेताओं ने भी अपने व्यवहार से इन संगठनों को राजनीतिक वर्ग के ख़िलाफ़ प्रचार करने का एक अच्छा मौक़ा दिया है.
पिछले तीन-चार वर्षों के दौरान दो समानांतर घटनाएं हुईं. एक तो सामाजिक संगठनों को विदेशों से ज़्यादा पैसा मिलने लगा और दूसरे यह कि देश में हर जगह भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन शुरू हो गए. रोज़मर्रा की समस्याओं से परेशान लोग सड़कों पर उतर आए. आंदोलन की सफलता से खुश होकर सामाजिक संगठनों ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए दूसरा क़दम उठाया. इन ग़ैर सरकारी संगठनों ने ख़ुद की महत्वाकांक्षा छिपाए रखने के लिए आंदोलनों को ज़रिया बनाया. जब अन्ना आंदोलन हुआ, तो चुनावी राजनीति के नाम पर अन्ना ने ख़ुद को इससे अलग कर लिया और वह आंदोलन की नई राह बनाने में जुट गए. लेकिन, जिनका लक्ष्य आंदोलन के नाम पर अपनी सियासी ज़मीन तैयार करना था, उन्होंने अलग पार्टी बना ली. इस पार्टी से लोकसभा चुनाव लड़े उम्मीदवारों की सूची देखें, तो पता चलता है कि जिनके संगठन विदेशी धन से संचालित होते हैं, वे सभी लोग इसमें शामिल हैं.
एनजीओ की दुनिया का हर बड़ा नाम इस पार्टी में है. हैरानी की बात तो यह है कि जो लोग समाजसेवा के नाम पर सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार समिति में थे, वे भी आज आम आदमी पार्टी के साथ हैं. यही लोग मौजूदा व्यवस्था और राजनीतिक वर्ग के ख़िलाफ़ देश में अराजकता फैलाने की पैरवी करते हैं. मज़ेदार बात यह है कि परिवर्तन के नाम पर देश में जो कुछ हो रहा है, वह फोर्ड फाउंडेशन की वेबसाइट में साफ़-साफ़ लिखा है. कहने का मतलब यह कि ये तमाम सामाजिक संगठन फोर्ड फाउंडेशन के एजेंडे पर काम कर रहे हैं. हमारे देश में फोर्ड फाउंडेशन से पैसा लेने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं और संगठनों को काफी इज्जत मिलती है, उन्हें अवॉर्ड दिए जाते हैं. जबकि यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि फोर्ड फाउंडेशन अमेरिका की खुफिया एजेंसी सीआईए की एक शाखा के रूप में काम करती है और वह अमेरिकी विदेश नीति का अहम हिस्सा है. सवाल यह है कि जो लोग और संगठन फोर्ड का एजेंडा देश पर थोपना चाहते हैं, वे दरअसल अमेरिकी विदेश नीति को भारत में लागू करने वाले एजेंट के रूप में काम कर रहे हैं.
वैसे तो देश में हर किसी को राजनीतिक दल बनाने और राजनीति करने का अधिकार है, लेकिन चिंता तब होती है, जब ये चुनाव तो लड़ते हैं, लेकिन यह नहीं बताते कि उनके पास कोई आर्थिक नीति नहीं है, विदेश नीति नहीं है और रक्षा नीति नहीं है. यह एक ख़तरनाक स्थिति है. ये संगठन वर्तमान व्यवस्था से नाराज़ लोगों का गुस्सा भड़का कर व्यवस्था के ख़िलाफ़ राजनीति को हवा देते हैं. लोग इन्हें समर्थन तो दे रहे हैं, लेकिन अगर कहीं ये उन्हीं नीतियों और विचारधाराओं को देश में लागू करने लगे, जिनके लिए इन्हें फंड दिया जा रहा है, तो अनर्थ हो जाएगा. कुछ समय पहले एक अंग्रेजी दैनिक ने ख़ुलासा किया था कि ह्यूमैनिस्टिक इंस्टीट्यूट फॉर को-ऑपरेशन विद द डेवलपिंग कंट्रीज (हिवोस) ने गुजरात में अप्रैल 2008 से अगस्त 2012 तक कुछ एनजीओ को 13 लाख यूरो (तक़रीबन 10 करोड़ रुपये) दिए, जिनमें से कुछ चर्चित ग़ैर सरकारी संगठन मसलन, दिशा को दो लाख चौबीस हज़ार यूरो, गुजरात खेत विकास परिषद को दो लाख सात हज़ार यूरो, सफर को एक लाख चौरासी हज़ार यूरो, महिती को एक लाख चार हज़ार यूरो, स्वाति को पचासी हज़ार यूरो और उठान को तिरसठ हज़ार यूरो दिए गए. हिवोस दिल्ली और मुंबई स्थित कई एनजीओ को भी आर्थिक मदद करता है. मुंबई बेस्ड तीस्ता सीतलवाड़ द्वारा संचालित एनजीओ और शबनम हाशमी के नेतृत्व में संचालित दिल्ली स्थित एनजीओ अनहद को भी हिवोस ने चार हज़ार यूरो दिए. ऐसे में सवाल यह है कि आख़िर यह धनराशि क्यों दी गई?
चुनाव सुधार की दिशा में काम करने वाली संस्था एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म (एडीआर) आईआईएम बंगलुरु के डीन रहे त्रिलोचन शास्त्री के नेतृत्व में चलाई जा रही है. संस्था की वेबसाइट पर कहा गया है कि हमारी कोशिश है कि हम देश में एक पारदर्शी, प्रभावशाली और उत्तरदायी सरकार लाने के लिए लोगों को जागरूक करें. एडीआर को बड़े पैमाने पर फंड फोर्ड फाउंडेशन की ओर से मिलता है. 2009 और 2011 में एडीआर को फोर्ड की ओर से दो-दो लाख डॉलर का फंड मिला था. इसका नतीजा यह है कि हमने इसके जरिये लोकसभा और विधानसभाओं की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा कर दिया. यह बात सही है कि लोकसभा और विधानसभाओं में अपराधी या जिन पर अपराध का मुक़दमा चल रहा है, वे घुस जाते हैं, लेकिन इसमें सुधार की ज़रूरत है. लेकिन, मीडिया और सामाजिक संगठनों ने एडीआर के रिसर्च के जरिये संसद और विधानसभाओं की विश्वसनीयता को कठघरे में खड़ा कर दिया और राजनीति को ही बदनाम कर दिया. अब जब संसद, विधानसभाओं और जनप्रतिनिधियों पर ही लोगों का भरोसा नहीं होगा, तो क्या देश में प्रजातंत्र बच पाएगा? भारत के प्रजातंत्र पर कुठाराघात स़िर्फ एडीआर ही नहीं, बल्कि विदेशी फंड से संचालित कई संगठन अपने-अपने तरीके से कर रहे हैं.
क़ानूनी तरी़के से विदेशी योगदान नियमन क़ानून (एफसीआरए) के तहत देश में आने वाली राशि 1993-94 में 1865 करोड़ रुपये थी, जो 2007-08 में बढ़कर 9,663 करोड़ रुपये यानी पांच गुनी से भी ज़्यादा हो गई. इस क़ानून के तहत पंजीकृत संस्थाओं की संख्या भी इस अवधि में 15,039 से बढ़कर 34,803 यानी दोगुनी से भी ज़्यादा हो गई. हालांकि इनमें से 46 प्रतिशत संस्थाओं ने 2007-08 में अपना लेखा-जोखा गृह मंत्रालय को नहीं दिया. 2011 में सरकार ने एक महीने में ही 4,139 एनजीओ पर विदेश से किसी प्रकार की सहायता राशि लेने संबंधी रोक लगाई है. इससे पहले केंद्रीय गृह मंत्रालय ने कहा कि 2009-10 में विदेश से आने वाले कुल 10,000 करोड़ रुपये में से अधिकांश रकम संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और यूरोप से आई थी. गृह मंत्रालय का 42 पृष्ठों का यह विश्लेषण कहता है कि देश में 14,233 एनजीओ ने विदेशी मदद स्वीकार की है और विदेश से इनके लिए आने वाली कुल रक़म 10,337.59 करोड़ रुपये है. मदद के लिए आए इन पैसों का बड़ा हिस्सा (1815.91 करोड़ रुपये) दिल्ली पहुंचा.
इन एनजीओ के पास जो रक़म विदेश से आ रही है, उसमें संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की हिस्सेदारी सबसे ज़्यादा है. उसके बाद जर्मनी और यूके का नंबर आता है. ये तीन देश पिछले कई सालों से एनजीओ की दानदाताओं की सूची में टॉप पर हैं. भारत की ग़रीबी, अशिक्षा एवं स्वास्थ्य को लेकर इन देशों की धार्मिक संस्थाओं के मन में उपजे प्रेम ने गृह मंत्रालय को सतर्क कर दिया है. मंत्रालय यह समझने की कोशिश में जुटा है कि इस मदद का उद्देश्य वास्तव में समाज सेवा ही है या कुछ और? इन तीन देशों के अलावा, भारतीय एनजीओ को कुछ अन्य देशों से भी मदद मिल रही है. मदद करने वाले अन्य देशों में इटली, नीदरलैंड, स्पेन एवं स्विटजरलैंड आदि शामिल हैं. इसके साथ ही कनाडा, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया एवं यूएई भी भारतीय ग़ैर सरकारी संगठनों के बड़े मददगारों में शामिल हैं. सूचना का अधिकार क़ानून के तहत मांगी गई एक जानकारी के मुताबिक़, कबीर को 2007 से लेकर 2010 तक फोर्ड फाउंडेशन से 86,61,742 रुपये मिले हैं. इतना ही Aनहीं, कबीर को डच दूतावास से भी पैसे मिले हैं. आख़िर किसी दूसरे देश का दूतावास हमारे देश के किसी ग़ैर सरकारी संगठन को पैसा क्यों दे रहा है? डच दूतावास की गतिविधियों को भारत में हमेशा शक की निगाह से देखा गया है.
दरअसल, आज भारत कई तरह के ख़तरों के मुहाने पर खड़ा है. लोगों में सरकारी तंत्र के ख़िलाफ़ ज़बरदस्त गुस्सा है. यह एक नाज़ुक स्थिति है. सरकारी तंत्र में लोगों का विश्वास बढ़े, यह राजनीतिक वर्ग का पहला काम होना चाहिए, अन्यथा भारत विरोधी ताक़तों को मौक़ा मिल जाएगा. रही बात ग़ैर सरकारी संगठनों की, तो उनका कार्यक्षेत्र निर्धारित करना ज़रूरी है. ये संगठन सामाजिक क्षेत्र में काम करें. इन्हें शिक्षा, रोज़गार, पर्यावरण, स्वास्थ्य एवं ग्रामीण विकास आदि क्षेत्रों में काम करने की पूरी आज़ादी मिलनी चाहिए, लेकिन व्यवस्था से जुड़े सवालों पर विदेशी फंड से चलने वाले एनजीओ पर प्रतिबंध लगना चाहिए. प्रशासनिक, न्यायिक, विदेश नीति, सुरक्षा नीति एवं चुनाव सुधार जैसे गंभीर मुद्दों पर विदेशी एजेंसियों और उनके एजेंटों को शामिल करना देश के लिए ख़तरनाक है. इसमें कोई शक नहीं कि विदेशी फंड से संचालित एनजीओ विदेशी एजेंट हैं. ये एनजीओ उन्हीं देशों के एजेंडों को लागू करने पर आमादा रहते हैं, जिनसे ये पैसा लेते हैं. केंद्र में बनी नई सरकार की यह प्राथमिकता होनी चाहिए कि वह ऐसा क़ानून बनाए, जिससे भारत में विदेशी फंड के इस्तेमाल पर रोक लगे या उसमें पारदर्शिता आ सके और जवाबदेही तय हो सके. नई सरकार को उन ग़ैर सरकारी संगठनों के नाम भी सार्वजनिक करने चाहिए, जो विदेशी एजेंसियों से पैसा लेकर आंदोलन और राजनीति करते हैं. यह देश के लोगों का अधिकार है कि वे जान सकें कि किन-किन लोगों ने विदेशी एजेंट बनकर देश का सौदा किया है.
Source: http://www.chauthiduniya.com/2014/07/videshi-fund-sanchalit-gaer-sarkari-santhan-desh-ke-liye-khatra-hai.html#sthash.s10BJeYD.dpuf
No comments:
Post a Comment